SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९६ उपदेशामृत ___ अतः सद्गुरु परमकृपालुदेवकी शरण रखें । हम भी उनके दासानुदास हैं। अपनी कल्पनासे किसीको गुरु न मानें, किसीको ज्ञानी न कहें; मध्यस्थ दृष्टि रखें। एक परमात्मा परमकृपालुदेवको मानें। उन्हींकी श्रद्धा रखें। हम भी उन्हें मानते हैं। हमारे और आपके स्वामी भिन्न न करें, वे एक ही हैं। उन्हीं पर प्रेम करें, प्रीति करें । जो होता है उसे देखते रहें और उनकी शरणमें स्मरण करते रहें। अरे मर! चाहे जितना दुःख आये तो भले ही आये। वह 'आओ' कहनेसे आयेगा नहीं और 'जाओ' कहनेसे जायेगा नहीं। हमें तो उसे देखते रहना है। देखनेवाला आत्मा है, वह तो भिन्न ही है। मेरी माँ, मेरे पिता, मेरे पुत्र–इन्हें अपना मान रहे हो वे अपने नहीं हैं, सब ऋणसंबंधसे आये हैं। जीव अकेला आया है और अकेला जायेगा। अतः हमें आत्माको नहीं भूलना है। चाहे जितना दुःख आवे तो भी आकुल न होवें। यह तो क्या है? अपना-अपना बाँधा हुआ आता है। अतः क्षमापूर्वक सहन करें। यह सब जानेके लिये आता है। समर्थ स्वामी एक परमकृपालुदेवको ही हमने तो मान्य किया है, वे ही आपके भी गुरु है; हम भी आपके गुरु नहीं, पर हमने जिन्हें गुरु बनाया है वे आपके गुरु हैं, ऐसा निःशंक अध्यवसाय रखकर जो दुःख आवे उन्हें सहन करें। कालक्रमसे सब जानेवाला है। यदि यह शिक्षा लक्ष्यमें रखेंगे तो आपका काम हो जायेगा। संसारकी मायाके दुःख देखकर किंचित् भी आकुल न होवें। जो होना होगा वही होगा। “नहि बनवानुं नहि बने, बनवं व्यर्थ न थाय; कां ए औषध न पीजिये, जेथी चिंता जाय?" बहुत करके होनहार बदलता नहीं और जो बदलनेवाला है वह होता नहीं। तो फिर धर्मप्रयत्नमें, आत्मिक हितमें अन्य उपाधिके आधीन होकर प्रमाद क्यों धारण किया जाय? १५१ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास प्र.वैशाख सुदी १५, रवि, १९९० जीवने जो कर्म बाँधे हैं उन्हें भोगना पड़ता है; पर उन्हें भोगते समय धैर्य और सदाचार रखें तो अच्छा परिणाम प्राप्त होता है। अच्छे और समझदार गिने जानेवाले व्यक्तिको कुटुंबमें एकता रखनी चाहिये। माताजीको समझाकर, धीरज बँधाकर, अपने सदाचरण द्वारा उन्हें सन्तुष्ट करना चाहिये। अपना बड़ा भाई पिताके तुल्य है। उन्हें भी कुटुंबका सारा भार उठाना पड़ता हो तो उसमें सहायता कर तथा उनका सन्मान और विनय कर, उन्हें प्रसन्न रखना हमारा मुख्य कर्तव्य है। अपनी आयमेंसे यथाशक्य बचत कुटुंबके लोगोंको निभानेमें खर्च हो तो उसे अपना अहोभाग्य समझना चाहिये। यदि हमारा व्यवहार यों सबको सुखी करनेका हो तो बहुत पुण्यका बंध होता है और कुटुंबमें एकता बढ़ती है, तब लोगोंमें भी कुटुंबकी प्रशंसा होती है। अपनी इच्छानुसार प्रवृत्ति करनेवाला स्वच्छंदी कहलाता है। स्वच्छंद व्यवहार करनेवाला इस लोकमें कुटुंबक्लेशसे दुःखी होता है और परलोकमें भी पापका फल भोगनेके लिये अधोगतिमें जाता है। अतः जिसकी सुखी होनेकी इच्छा हो उसे माता, पिता, बड़े भाई आदिका विनय करना चाहिये और जिसे धर्मकी इच्छा हो उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy