SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पत्रावलि-१ ९३ मान्य हो जायेगा तो जीवका कल्याण हो जायेगा। वैसे अपनी कल्पनासे 'यह ज्ञानी है' ऐसा मान लेना उचित नहीं। मध्यस्थ रहें, न अज्ञानी कहें, न ज्ञानी कहें। यदि अपने स्वच्छंदसे वह किसीको मान्य करे तो वह उसकी भूल हुई है ऐसा मानना। जो कोई सत्संगमें सद्गुरुको मान्य करेगा, उसका कल्याण होगा। अपनी कल्पनासे मानकर जीव भूल करता है। उन सत्स्वरूप ज्ञानीपुरुषोंने आत्माको देखा है, जाना है, वही मुझे मान्य है। पुनः पुनः मनुष्य भव मिलना दुर्लभ है। इस भवमें यदि श्रद्धा और प्रतीति एक आत्माकी हो गई तो इस जीवका कल्याण है। ऐसा योग बार-बार नहीं मिलेगा। अतः ज्ञानी द्वारा बताये गये मंत्रका स्मरण करना चाहिये। व्याधि, पीडा, दुःख देहके संबंधसे होते हैं, वे चले जाते हैं। उसका हर्ष-शोक न करें। माता, पिता, स्त्री आदिमें मोह न करें। देह भी मेरी नहीं है, ज्ञानदर्शनरूप आत्मा मेरा है। उसे ज्ञानीने जाना है। उसके अतिरिक्त किसी पर प्रीति न करें। भावना, भक्ति, स्मरण करते रहें। बीस दोहे, क्षमापनाका पाठ, आत्मसिद्धि उन्हें सुनाते रहें। स्मृति बराबर हो तो पत्र ६९२ उन्हें सुनायें। उसमें आत्महितकी जो स्मृति कराई गई है, उसे वे ध्यानमें रखें, ऐसा उन्हें कहें । अन्य कुछ इच्छा न करें, मनमें भी न लावें । उस पत्रके अंतमें लिखा है-"श्री सद्गुरुने कहा है ऐसे निपँथ मार्गका सदा ही आश्रय रहे । मैं देहादि स्वरूप नहीं हूँ, देह स्त्री पुत्रादि कोई भी मेरे नहीं है, मैं शुद्ध चैतन्यस्वरूप अविनाशी आत्मा हूँ। यों आत्मभावना करनेसे रागद्वेषका क्षय होता है।" ये श्री परमकृपालुदेवके वचन हैं, इन्हें ध्यानमें लीजियेगा। संगका फल अवश्य मिलेगा। मृत्युका भय न रखें। एक आत्माको अनेक बार याद करें, विश्वास रखें। ‘आतम भावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे।" कुछ चिंता करने जैसा नहीं है। आत्माकी ऋद्धि अनंत है, वह आत्माके साथ ही है। अन्य सब मूर्छा ममत्व छोड़ दे। 'हुं माझं हृदयेथी टाळ ।' १४८ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास भाद्रपद सुदी७, १९८९ मनुष्यभव दुर्लभ है या चार दिनकी चाँदनी है, एवं सब नष्ट होनेवाला, नाशवान है, धोखेबाज है। ऐसे संसार पर विश्वास रखकर जीव आसक्त हो रहा है। मैं कमाता हूँ, मैं विषयोंको भोगता हूँ, मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ ऐसा मान रहा है। पर मृत्युकी लाठी सिर पर खड़ी है इसका जीवको पता नहीं है, उस ओर उसने देखा भी नहीं है। चार गतिमें घोर दुःख भोगने पड़े, ऐसे कर्म बंधन हों वैसे इंद्रियोंके विषय-भोगोंको जीव प्रिय मानता है यह महा अज्ञान है। "मैं समझता हूँ, मैं जो कर रहा हूँ वह ठीक है, मुझे किसीकी सलाह लेनेकी क्या आवश्यकता है? मुझे कौन पूछनेवाला है?" ऐसा सूक्ष्म अहंकार जीवको मार देता है। संपूर्ण मनुष्यभव लुट रहा है, यह तो व्यापारमें दिवालिया बननेसे भी बहुत बुरा भयंकर है। फिर कौवे-कुत्तेके भवमें धर्माराधनका अवसर कहाँ मिलेगा? वर्तमानमें कोई अघटित कार्य हो गया हो तो मन-वचन-कायासे दुबारा वैसा न करनेकी प्रतिज्ञा लेकर बलपूर्वक उससे दूर होना योग्य है। कहनेवाला कह देता है और जानेवाला चला जाता है। जो करेगा वह भोगेगा। अभी आँखें मूंदकर पाप करेगा तो फिर बिलबिलाकर पश्चात्ताप करनेसे भी छुटकारा नहीं मिलेगा। चेतना चाहे तो अभी समय है। सत्संग-समागममें विशेष समय बिताना चाहें तो बिताया जा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy