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________________ ९४ उपदेशामृत सकता है। अभी तक बाजी हाथसे गई नहीं है। जब तक मनुष्यभव है तब तक सब हो सकता है, फिर किसीके वशकी बात नहीं है। सबको अपने अपने कियेका फल आत्माको अकेले ही भोगना पड़ेगा। अतः डरने जैसा है, जागृत होना योग्य है । दुष्ट समागम तजने योग्य है। उल्टे मार्गको भूल जाना चाहिये। मरजिया होकर भी सदाचारका सेवन करना योग्य है। ___जीव मस्त होकर घूम रहा है, पर बीमारी या मृत्युशैया पर पड़ेगा तब कौनसा व्यापार काम आयेगा? धनके भंडार होंगे वे भी पड़े रहेंगे। सगे-संबंधी या विषयभोग कोई भी उस समय दुःख बँटानेमें समर्थ नहीं है। यह सोचकर आज्ञारूपी धर्मकी आराधना करनेको तैयार हो जाना चाहिये। 'आणाए धम्मो, आणाए तवो।" १४९ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास ता.१४-११-३३ द्रव्य, क्षेत्र, काल आदिकी स्पर्शनाके अनुसार सब होता रहता है। उसमें समकिती जीवको हर्ष-शोक करना उचित नहीं है। "जो जो पुद्गल फरसना, निश्चे फरसे सोय; ममता-समता भावसे, कर्म बंध-क्षय होय." क्षमा, सहनशीलता ही मोक्षका राजमार्ग है। नाशवान वस्तुके परिवर्तनको देखकर समझदार लोग शोकके बदले वैराग्यको प्राप्त होते हैं। हमारी दृष्टिके समक्ष कितने ही जीव इस भवकी माथापच्चीको छोड़कर चले गये हैं, फिर ढूँढने पर भी कहीं उनका पता नहीं! क्या अब उन्हें इस गाँवकी, देशकी या कुटुंबकी कुछ खबर हैं? यहाँ थे तब कितनी चिंता हृदयमें लेकर घूमते थे? उनमेंसे क्या काम आया? सत्पुरुषका एक भी वचन हृदयमें स्थिर रहे तो कल्याण है। १५० श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास फाल्गुन सुदी ८, बुध, १९९० ता.२१-२-१९३४ महात्मा ज्ञानी कृपालुदेवके उपदेशको सुनकर उनकी शिक्षाको ध्यानमें रखें तो कर्मबंध नहीं होगा ऐसी ज्ञानियोंकी शिक्षा है, उसे ध्यानमें रखना उचित है जी। दूसरे, भाई! आप समझदार हैं अतः आपको आकुलता, चिंता या घबराहट नहीं होनी चाहिये । जो साता-असाता आयें तथा बँधे हुए कर्म उदयमें आयें उन सबको समभावसे सहन करना चाहिये। जीवने पूर्वकालमें जो कर्म बाँधे हैं वे उदयमें आते हैं। ऋण-संबंधसे सगे-संबंधी मिले हैं। उन कर्मोंको भोगते समय समभाव रखकर सहन करें। समता, क्षमा, धैर्य रखें और सब शांतिसे सहन करें। जो कर्म उदयमें आते हैं, वे भोगनेसे छूट जाते हैं, उसमें हर्ष-शोक न करें। समतासे सहन करना ही तप है। इससे आकुल-व्याकुल होकर कुछ बुरा चिंतन न करें। 'यहाँसे चला जाऊँ, छूट जाऊँ, मर जाऊँ' ऐसा कोई संकल्प न करें। ऐसा करने पर जीव कर्म बाँधता है। तथा कर्म तो चाहे जहाँ बंधके अनुसार भोगने पड़ेंगे। पर उन्हें समताभावसे सहन करें। आकुल होकर कहाँ आकाशमें चढ़ जायेंगे? जहाँ भी जायेंगे, कर्म दो कदम आगे ही आगे हैं। अतः समतासे सहन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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