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उपदेशामृत ऐसा जानकर, मनमें उठती वृत्तिको रोककर, कल्पनाको रोककर योग्यता लाइयेगा। आत्माका भला करनेवाला, बुरा करनेवाला एक आत्मा ही है। कल्पनाको निकालकर एक योग्यता बढ़ायेंगे तो घरमें बैठे या वनमें बैठे अच्छा ही होगा। आपको जितना बुरा लगा है, उतना ही अमृत पिलाया है। जो आपको अच्छा लगाये वह विषपान करा रहा है ऐसा मानें। अतः अब परमकृपालुदेवके वचनको, उनकी आज्ञाको ध्यानमें लेकर जागृत होवें, जागृत होवें। वृत्ति, मन, चित्तको दुबारा परभावमें जाते रोकें। पढ़ने-विचारनेमें, वचनामृतमें समय बितायें। इसमें अन्यका काम नहीं, स्वयंका काम है। 'सत्संग, सत्संग' करेंगे पर सत्संग कुसंग हो जायेगा। सत्संग क्या है? अपना आत्मा। भ्रांतिसे किसीको सत्संग मान बैठेंगे पर वह असत्संग हो जायेगा । जहाँ-तहाँसे आत्माका कल्याण हो वह करना चाहिये । यह अन्य कोई कर देनेवाला नहीं है। आप समान बल नहीं, मेघ समान जल नहीं। योग्यता लायें। आत्माको सावधान होने जैसा है। किसीका दोष देखना उचित नहीं। मनुष्यभव मिला है तो अब नरकमें, निगोदमें, तिर्यंचमें न जाना पड़े ऐसा करना अपने हाथमें है। अकेला आया है, और अकेला जायेगा। अतः रत्नचिंतामणि जैसा मनुष्यभव हार नहीं जाना चाहिये । 'कौड़ीके लिये रत्न और बाटीके लिये खेत' नहीं गुमाना चाहिये । करोड़ों रुपयोंसे अधिक मूल्यवान मनुष्यभव है उसका लाभ उठा लेना चाहिये। अधिक क्या कहें? पृथ्वी, पानी, वनस्पतिमें गया तो वहाँ कोई आधार नहीं है। अपनी मतिकल्पना ही बुरा करती है। उसे कुछ सद्भावमें लानी चाहिये, सद्वर्तनमें प्रवृत्ति करनी चाहिये । भला करेगा तो आपका आत्मा ही करेगा, बुरा करेगा तो भी आपका आत्मा ही करेगा। अतः सावधान होने जैसा है। हमने आपको (आत्माको) कुछ नहीं कहा है; हमने तो दोषको, विभावको, बुराईको कहा है।
१४६ कावा राणाका बंगला, आशापुरी रोड,
नवसारी, ता.२२-५-३३ सभी बातों और दुःखका उपाय एक सत्समागम है। अतः अधिक सयानापन और माथापच्ची छोड़कर, हजारों रुपये मिलते हों तो भी उसको विष मानकर, यह बात छोड़कर समागममें रहना चाहिये । अन्य उपाय नहीं है। समागमसे शांति मिलेगी और जो अन्य लाभ होंगे वे तो कहे ही नहीं जा सकते। अतः अन्य कुछ न कर तुरत समागममें आ जाना चाहिये । अन्य किसी बातमें कुछ भी सार नहीं है। मात्र अग्निकी ज्वालामें जलने जैसा है। तथा मोहनीय कर्म आकुलित करता है उसका उपाय एक सत्समागम है उसमें आयें। आपकी वृत्ति, व्यवहार आपको स्वयंको अच्छा नहीं लगता
और खेद करवाता है और वश नहीं चलता, तो वह सब यहाँ ठीक हो जायेगा। वीतरागकी सभामें, समागममें मोहनीय कर्मको बाहर ही बैठना पड़ता है। जीवकी यदि छूटनेकी इच्छा है और सच्चे वीतराग पुरुष हैं तो फिर मोहनीय कर्म कुछ नहीं कर सकता, घबराहट आती नहीं, चली जाती है और शांति होती है।
१४७ नवसारी, वैशाख वदी १२, रवि, १९८९ भगवान तीर्थंकर आदिने मनुष्यभवको दुर्लभ कहा है, ऐसा संयोग प्राप्तकर सच्चे सद्गुरु कृपालुदेवके प्रति श्रद्धा, प्रतीति, रुचि करनी है। यह वाक्य जो लिखा है, वह किसी संतके कहनेसे
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