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________________ पत्रावलि - १ ९१ १४४ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास, सं. १९८८ स्नेह प्रीति करना योग्य नहीं है । एक आत्मा ज्ञानदर्शनमय है । यह भावना वारंवार करनी चाहिये । अन्यत्र परभावमें मन जाये कि तुरत वापस मोड़ देना चाहिये, वृत्तिको रोक देना चाहिये । क्षेत्र - स्पर्शना है, अन्न-जल लिखा है ऐसा समझकर अरतिसे आर्तध्यान हो वैसा न करें । "जो जो पुद्गल फरसना, निश्चे फरसे सोय; ममता-समता भावसे, कर्म बंध-क्षय होय. " अपनी इच्छासे, स्वच्छंदसे जीवके जन्ममरण हो रहे हैं, उससे घबराना नहीं चाहिये । मृत्युके समय कौन सहायक है ? उस समय परवशतासे भोगना पड़ता है, तो अभीसे 'जा विध राखे राम ता विध रहिये ।' आकुल न हों, घबराये नहीं । सहनशीलता ही तप है । जहाँ जायेंगे वहाँ मिट्टी, पानी और पत्थर हैं। किसी स्थान पर सुख नहीं है । सुखको जाना ही नहीं है । दुःख, दुःख और दुःख है । दुःखमें ही सुख मान रहा है, भ्रम है। सावचेत होने जैसा है । भूला वहींसे फिर गिन । जागे तभी से सबेरा । अंतमें सब छोड़ना पड़ेगा । अतः समझकर स्वच्छंदको रोकते हुए, अभी जैसा अवसर है उसके अनुसार समय व्यतीत करें और समभाव रखे तो तप ही है । इच्छाएँ, तृष्णाएँ करे तो बंध है। अकेला आया है, अकेला जायेगा । फिर ऐसा अवसर नहीं आयेगा । मनुष्यभव बार बार नहीं मिलेगा। जीती हुई बाजी हारनी नहीं है । कोई किसीका दुःख बाँटनेमें समर्थ नहीं है । कोई किसीको सुख देनेमें समर्थ नहीं है । । "आतम भावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे । " जीव लहे केवलज्ञान रे । ✰✰ १४५ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास सं. १९८९ आपका पत्र पढ़कर समाचार ज्ञात हुए। आपको एक सूचना देनी है उसे आत्मार्थके लिये ध्यानमें लीजियेगा । आपने पर्यायदृष्टिसे यहाँ मनुष्यभव धारण किया है वह रत्नचिंतामणिके समान है । ऐसा समझकर दयाभावसे कुछ शब्द लिखनेमें आये हों तो बुरा न मानियेगा और ऐसा सोचियेगा कि हम पर दया कर छद्मस्थ अवस्थाके कारण कुछ कटुतासे अर्थात् आपसे दुबारा वह आचरण न हो इसके लिये कहा गया है । यद्यपि ऐसा कुछ नहीं कहा गया है, जो कुछ कहा गया है वह फिरसे ऐसी भूल न हो इसके लिये कहा गया है। हमारा तो सब पर समभाव है, पर किसी जीवका भला हो ऐसा समझकर कुछ कहा जाता है । I कोई किसीका बुरा नहीं कर सकता। एक आत्मा ही आत्माका भला करेगा या विभावी आत्मा बुरा करेगा। इस जगतमें कोई किसीका बुरा करने या भला करनेमें समर्थ नहीं है। अतः इस भवमें तैयार हो जाना चाहिये। मेहमान है, पाहुना है, लंबे समय तक रहना नहीं है । अकेला आया है और अकेला जायेगा । इसमें सावधान रहना उचित है। जागृत रहने जैसा है, इसलिये सूचित किया है । यदि अपने दोषको निकाल दे तो जीवका कल्याण हो जाय । जैसे भी हो ऐसे बुरे व्यवसायको त्यागकर अच्छे भाव करने चाहिये। अधिक क्या लिखूँ ? समझदारको तो इतना ही बस है। अपने दोष देखे नहीं गये । जीव मतिकल्पनासे मान लेता है ऐसी कोई भूल है उसे ही निकालना जरूरी है 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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