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उपदेशामृत योग्य है, अपनी कल्पनासे अन्य किसीको मानना योग्य नहीं। जो इस प्रकार एक सद्गुरुकी श्रद्धासे ही रहता है उसका आत्महित और कल्याण है। यदि एक समकित भी इस भवमें न हुआ तो जन्म-मनुष्यभव व्यर्थ गया समझें। इन एकको ही माननेसे सभी ज्ञानी आ जाते हैं, ऐसा अनेकांत मार्ग अभी समझमें आया नहीं है। अतः उसने जो जाना है वही सच है, मुझे भी वही मानना चाहिये, ऐसा माने तो आत्मकल्याण होगा। उन्हींकी आज्ञासे कल्याण है। 'श्री आत्मसिद्धि में उन्होंने जो-जो आज्ञा दी है, वही कर्तव्य है। यद्यपि जगतमें अनेक जीव उत्तम हैं, गुणी हैं, किन्तु जब तक यथातथ्य परीक्षा-प्राधान्य नहीं आया, तब तक गुणीके गुण देखें, दोष न देखें। जीव स्वच्छंदसे और प्रमादसे अनंतकालसे भटका है। अतः यथाशक्य जागृति, आत्मभावना, स्मरणभक्तिमें अमुक समय बिताना चाहिये । काल भयंकर है। प्राण लिये या लेगा ऐसा हो रहा है। तब यह जीव किस कालकी प्रतीक्षा करता है, यह समझमें नहीं आता।
१"यौवननी शी करवी माया? जळ-परपोटा जेवी काया;
जावं पडशे नरके मरीने, आवी धननी आशा करीने. ५ २भव तरवा इच्छे जो भाई, संत-शिखामण सुण सुखदाई
काम, क्रोध ने मोह तजी दे, सम्यग्ज्ञान समाधि सजी ले. ६ कोण पति पत्नी पुत्रो तुज ? दुःखमय पण संसार गणे मुज; पूर्व भवे पापे पीडेलो, कोण हतो कर्मे जकडेलो? ७ 'विषयभूतनो मोह मूकी दे, कषाय चारे निर्मूळ करी ले;
काम माननो कूचो करी दे, इंद्रिय चोरो पांच दमी ले. १३ "दुर्गति-दुःख अनेके कूट्यो, तो पण पीछो तेनो न छूट्यो;
जाणे भूत-भ्रमित मदमत्त, जीव अनाचारे रहे रक्त. १६ ६मा कर यौवन-धन-गृह-गर्व, काळ हरी लेशे ए सर्व; इंद्रजाळ सम निष्फळ सहु तज, मोक्षपदे मन राखी प्रभु भज. १८"
(वैराग्यमणिमाला) ॐ शांतिः शांतिः शांतिः
१. यौवन वयमें क्या प्रीति करना? क्योंकि काया पानीके बुलबुलेकी तरह क्षणभंगुर है। यौवनवयमें ऐसे धनमें आसक्त रहा तो मरकर नरकमें जाना पड़ेगा। २. हे भाई! यदि तू संसारसे पार पाना चाहता है तो यह संतका सुखदायक उपदेश सुन-काम, क्रोध और मोहको छोड़कर सम्यग्ज्ञानपूर्वक समाधि (आत्मस्वरूपमें रमणता) का आराधन कर। ३. तेरा कौन पति, पत्नी या पत्र हैं? अर्थात कोई किसीका नहीं है। सारा संसार दुःखमय है। पूर्वभवमें पापकर्म बंधनकर कहाँ दुःख भोग रहा था? ४. विषय (कामवासना) रूप भूतका मोह छोड़ दे-उसके बंधनसे मुक्त हो जा, चारों कषाय निर्मूल कर दे, काम और मानको कूट-कूटकर नष्ट कर दे और पाँच इंद्रियरूपी चोरोंका दमन कर दे अर्थात् वश कर ले। ५. दुर्गतिके दुःखोंसे जीव अनेक प्रकारसे पीड़ित हुआ है फिर भी अभी तक उसका पीछा नहीं छूटा। मानों भूत-भ्रमित होनेसे मदमत्त हो गया हो इस प्रकार जीव अनाचारमें रक्त है इसलिये दुःखसे छुटकारा नहीं हो पाता। ६. हे जीव! यौवन, धन, घरका गर्व मत कर, क्योंकि काल (मौत) यह सब हरण कर लेगा। इंद्रजाल(माया)के समान इन्हें निष्फल जानकर इनके ममत्वका त्याग कर और मोक्षपदमें प्रीति रखकर प्रभुकी भक्ति कर।
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