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पत्रावलि-१ अब उसमेंसे कुछ भी नहीं रहा। वर्तमानमें जो हो रहा है, वह पूर्वकर्मके संस्कारके फलरूप है। जीवने जैसे-जैसे भाव हे प्रभु! अज्ञानभावसे किये, वे वे भाव अभी कर्मरूपसे उदयमें आकर जीवको अकुलाते हैं उसमें घबराना क्या? माँगा सो मिला, इच्छित प्राप्त हुआ। मोहाधीन माँगा, इच्छा की, वह आया तो सही, पर उसमें घबराहट हो तो उसमें किसे दोष दिया जाय? हर्ष-शोक क्यों ? उचित ही हो रहा है और वह भी हो जानेके बाद कुछ भी नहीं रहेगा, ऐसा होना ही है। कर्म उदयमें आकर खिर जाते हैं, फिर नहींवत् हो जाते हैं, तो फिर चिंता किस बातकी? होनहार होकर रहेगा। भविष्यमें जो होनेवाला है वह भी, वर्तमानमें जैसे भाव होंगे वैसा ही बनेगा। भविष्यकी स्थिति सुधारना जीवके अपने हाथमें है। सम्यक्भावना करके सम्यक् स्थिति प्राप्त करेगा तो फिर सम्यक्भाव सुंदर ही हैं। असम्यक्भावना करके सम्यक् स्थिति प्राप्त करेगा तो फिर सम्यक्भाव सुंदर ही हैं। असम्यक् प्रकारसे परपदार्थ-परभावकी भावना करना योग्य नहीं। हे प्रभु! स्वप्न समान जगत और असत्संग जैसेमें इस जीवका समय बीत रहा है, ऐसा लेख यहाँ मुमुक्षुके पत्रसे पढ़ा । अतः हे प्रभु! अब तो जैसे भी हो इस क्षणभंगुर देहमें दो घड़ी दिन जैसे आयुष्यमें *पगड़ीके पल्ले पर जरी लग जाने जैसा कुछ हो जाय तभी कल्याण है। मनुष्यभव चिंतामणि है। हे प्रभु! यह तो पक्षियोंका मेला है। स्वप्न है। ज्यादा क्या लिखू? जीवको सत्संग और आत्महित हो, ऐसी दृष्टि रहा करती है।
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श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास
वैशाख पूर्णिमा, १९८८ सद्गुरु कृपासे सहन करना और जो हो रहा है उसे देखते रहना यही उत्तम औषधि है जी। नमिराजर्षि जैसोंको भी कर्मोदयके कारण असह्य वेदना सहन करनी पड़ी थी। वे भी आत्मा थे, तथा उन्होंने ऐसे समय पर आत्मलाभ प्राप्त किया था उसे याद करके समभावसे सहन करनेकी भावना रहा करती है।
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श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास
अषाढ़ वदी ८, मंगल, १९८८ सद्गुरु श्री देवाधिदेव परमगुरुने मनुष्यभवको चिंतामणिके समान दुर्लभ कहा है। जिस सत्पुरुषने, सद्गुरुने, अनंतज्ञानी तीर्थंकरने आत्माको यथातथ्य जाना है, देखा है, माना है, उस ज्ञानीका यथार्थ सत्समागम यदि जीवको न हुआ हो तो भी उस सत्पुरुषके समागममें, जिस किसी संत या मुमुक्षुने श्रद्धा, प्रतीति की है उस सत्संगका योग, यदि मनुष्यभव प्राप्तकर इस जीवको मिल गया हो और उनकी प्रतीति, विश्वास विशेष सच्चे मनसे आनेपर, उनके कथनानुसार उन सद्गुरुके प्रति, उनके बोधके प्रति प्रतीति, श्रद्धा, रुचि, मान्यता, आस्था इस जीवको हो जाय तो यह मनुष्यभव सफल है। उस संत द्वारा कथित सद्गुरुकी एक मान्यता, श्रद्धा होनेसे समकित कहा जाता है। इतना मनुष्यभव मिला है उसमें वही श्रद्धा सत्कृपालु श्री सद्गुरुदेवके प्रति जीवको रखना
* 'पाघडीने छेडे कसब' मूल गुजराती कहावत है। पगड़ीके छोर पर जरी लगनेसे उसकी शोभा बढ़ती है, वैसे ही जिंदगीके अंतिम भागमें आत्महितका काम हो जाय तो जीवनकी सफलता है।
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