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________________ उपदेशामृत "मोहनींदके जोर, जगवासी घूमे सदा, कर्मचोर चिहुँ ओर, सर्वस्व लूटे, सुध नहि. सद्गुरु देय जगाय, मोहनींद जब उपशमें, तब कछु बने उपाय, कर्मचोर आवत रुकें." "धन, कन, कंचन, राजसुख, सबै सुलभ कर जान; दुर्लभ है संसारमें, एक यथारथ ज्ञान." वृद्धावस्थाके कारण शरीरमें कुछ न कुछ व्याधि हो जाती है, उसकी चिंता न कर श्री परमकृपालु देवाधिदेवकी शरणसे यथाशक्ति समभावसे वेदन करते हैं। सत्पुरुषके मार्ग पर चलते हुए जीवात्माको जहाँ बंधनसे छूटना होता हो, वहाँ शोक किसलिये करना चाहिये? ज्ञानीने समभावसे भोगनेका उपदेश दिया है, अतः इस जीवको यथाशक्य समतासे, धैर्यसे प्रवृत्ति करना योग्य लगता है, वह सद्गुरुशरणसे सफल हो यही भावना है जी। हे प्रभु! वैराग्यमें बहुत विघ्न आते हैं। जितनी शीघ्रता, उतना विलम्ब । जितना कच्चापन उतना खट्टापन । हे प्रभु! धैर्य बड़ी बात है। समता, क्षमा, सहनशीलतासे प्रवृत्ति करनेके पुरुषार्थकी जीवको आवश्यकता है। ऐसा एक अभ्यास डालनेकी वृत्ति ध्यानमें रखनी चाहिये। परमकृपालुदेवकी अनंत अनंत कृपा है। उनकी कृपासे, धैर्यसे जीवका आत्महित, कल्याण हो ऐसी आशीर्वादपूर्वक भावना छद्मस्थ वीतरागभावके कारण पुराणपुरुषकी कृपासे विचारमें स्फुरित होती है, वह दीनबंधुकी कृपादृष्टिसे सफल हो, जो यथावसर समागममें अंतराय टूटने पर शक्य हो जायेगी जी। दूसरे हे प्रभु! आपमें जो कुछ भी आत्महित होनेकी भावना रहती है, वह कुछ पूर्वसंस्कारके कारण होती है। देवाधिदेव परमकृपालुदेवने सौभाग्यभाईको व्यावहारिक व्यवस्थाके बारे में कहा था कि तुम्हारे संबंधमें हमें बहुत चिंता है। वह निबंध तो संसार-व्यवस्थाका था, और यहाँ तो वह संबंध नहीं है; परंतु हमारे आत्माका कल्याण हो और तुम्हारा कल्याण हो इस विषयका संबंध हमारे ध्यानमें है, अन्य कुछ स्वार्थ नहीं है जी। यह पुस्तक "श्री सद्गुरुप्रसाद" किसी अन्यके पढ़नेके लिये नहीं है। पर जिसे उन सद्गुरुकी भक्ति विशेष जागृत हुई है, उनके वचनामृतकी सूचना मिली है और जो सम्यग्दृष्टिवान जीव हैं उसे वह याद दिलानेके लिये, जागृत करनेके लिये, बोधबीजके लिये अनुरोध है जी, तथा श्री सद्गुरुकी श्रद्धा प्राप्त करनेका मूल हेतु है जी। अधिक चित्रपट आयेंगे तो उसमें कुछ अड़चन नहीं है। यह पुस्तक दर्शन-भक्तिकी है जी। इसमें अधिक चित्रपट आयेंगे तो आपत्ति जैसा मुझे लगता नहीं है। १४१ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास ___ कार्तिक सुदी १४, १९८८ हे प्रभु! कुछ चैन नहीं पड़ता, अच्छा नहीं लगता। हे प्रभु! सर्व कर्मोदय मिथ्या है ऐसा गुरुशरणसे जाना है, अनुभव किया है। जिनकी वृत्ति तदनुसार वर्तनकी रहती है ऐसे समभावी महात्माको नमस्कार है। भूतकालमें जो होने योग्य था वह हो गया, उसका अब शोक क्यों? क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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