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________________ उपदेशामृत यह बात सोचकर अपनी मतिकल्पना और स्वच्छंदको रोककर एक सत्पुरुष श्री सद्गुरुदेव के सत्संग में हुए बोधकी किसी महापुण्ययोगसे किसी संत समागममें प्रतीति, रुचि, आस्था अर्थात् श्रद्धा हो तो यह मनुष्यभव पानेकी सफलता है । इस संगका फल मिले बिना कभी नहीं रहता । यह अवश्य जानें, निःशंक मानें। ८४ ऐसी प्रतीति रखकर प्रवृत्ति करेंगे तो आपको आत्महितका अपूर्व महा कल्याणकारी कारण होगा और वेदना तो वेदनी कर्म पूरा होने पर क्षय होगी। कुछ घबराने जैसा नहीं है। मनुष्यभवको भगवानने दुर्लभ कहा है । उसमें एक सम्यक् बोधबीज प्राप्त करनेका अपूर्व ऐसा विशेष अवसर - आर्य देश, मनुष्यभव, सत्संग और सच्चे बोधका संयोग मिलना - दुर्लभ है, अतः सावधान रहना चाहिये । इस भवमें विशेष जागृति रखने और श्रद्धा करने जैसा है । उसके बिना अनंत बार जन्म मरणादि दुःखोंके कारणोंको इस जीवने सहन किया है। संपूर्ण लोक त्रिविध तापसे जल रहा है ऐसा सोचना चाहिये । वह स्वप्न समान है, नाशवान है । कोई किसीका दुःख लेनेमें समर्थ नहीं है । महापुण्यके योगसे संप्राप्त यथातथ्य धर्म पानेकी सामग्री प्रमादमें न चली जाये, इसलिये भाविक आत्मार्थी आत्माके विचारमें रहता है। मंत्र - स्मरण, भक्ति, वाचन, विचारके प्रसंगमें रहना योग्य हैं । निमित्तसे ही अच्छा होता है और निमित्तसे ही बुरा होता है । अतः भक्तिभावका अच्छा निमित्त रखना योग्य है जी । चित्त - मनकी चपल प्रकृतिकी वृत्तिको रोकना योग्य है । ॐ शांतिः शांतिः शांतिः १३४ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे. अगास ता. १८-६-३१ अषाढ़ सुदी २, गुरु, १९८७ दुषमकाल है। इसमें अनेक जीवोंका कल्याण होगा - एक श्रद्धासे; जो कुछ कर्तव्य है वह सत्पुरुषकी दृष्टिसे करने योग्य है। श्रद्धा - कुशलता हो ऐसा, गुरुकृपालुके योगबलसे शासन यहाँ प्रवर्तित होगा । काल बहुत भयंकर आया है । पर आत्मार्थीको वैराग्यका निमित्त हो सके वैसा सनातन जैन शासन जयवंत है, शाश्वत है। अतः पाँचवें कालके अंत तक अनेक जीवोंका कल्याण, हित होने योग्य है । क्या लिखूँ ? कहा नहीं जा सकता। एक इस जीवको, जैसे भी हो श्रद्धाके बलका बहुत पोषण करने जैसा अवसर आया है । करना, कराना और अनुमोदन करना योग्य है । 1 'समयं गोयम मा पमाए' यह कोई चमत्कार है, संकेत है। यह अद्भुत है ! इसमें मुख्यसे मुख्य श्रद्धा है । उसका लाभ बहुत सत्संग और समागममें बोधके निमित्त कारणसे होता है, ऐसा समझमें आता है । आप तो समझदार हैं, आपको क्या लिखूँ ? अतः यथाशक्ति सावचेत होना कर्तव्य है । आयुष्यका भरोसा नहीं है । लिया या लेगा हो रहा है । काल सिरपर खड़ा है। फिर यह जीव किस कालकी प्रतीक्षा कर रहा है ? यह विचारने योग्य है जी । रहस्य शब्द कोई गूढ़, गहन है अवश्य ! आप विचार करियेगा । एक सम्यक्त्व इस कालमें योग्यतासे अनेक जीवोंको प्राप्त हो ऐसा तो हो सकता है जी और ऐसा अवसर बार बार मिलना दुर्लभ है जी। यदि इस भवमें इसीके विषयमें मनवचन- कायासे भाव परिणाम प्रबल होगा तो आत्महितकारी है, कल्याणकारी है । क्या लिखूँ ? जन्म, जरा, मरण, रोग, व्याधि, पीड़ासे संपूर्ण लोक त्रिविध तापसे जल रहा है । " अनादि स्वप्नदशाके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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