SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पत्रावलि-१ ८५ कारण उत्पन्न जीवके अहंभाव-ममत्वभावकी निवृत्तिके लिये" सद्गुरुने जो संकेत किया है वह "स्वप्नदशासे रहित मात्र अपना स्वरूप है, यदि जीव ऐसा परिणाम करे तो सहजमात्रमें जाग्रत होकर सम्यग्दर्शनको प्राप्त होता है।" यह निःशंक मानने योग्य है, कर्तव्य है। स्वच्छंद, प्रमाद वैरी हैं, शत्रु हैं, इससे जीवकी भूल होती है। यह जीवका ही दोष है। यह गूढार्थ सत्संगमें बहुत विचारणीय है। इसमें प्रश्न यह उठता है कि प्रमाद और स्वच्छंद गये कब कहे जा सकते हैं? इस पर विचार करें। दृढ़ समकिती पुरुष विरले हैं, अतः सत्संगके योगसे जाग्रत होना कर्तव्य है जी। यह पत्रिका आपको भेंटरूप भेजी है। “पर प्रेम प्रवाह बढे प्रभुसें, सब आगम भेद सु उर बसें, वह केवलको बीज ज्ञानी कहे, निजको अनुभौ बतलाय दिये." सामान्यभाव, लौकिकभाव जीवको कर्तव्य नहीं है। सद्गुरुके वचनोंका जो आशय इस पत्रमें है, उसे आत्मार्थके लिये ध्यानमें लेना चाहिये जी। यह भाविक आत्माके लिये है जी। १३५ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे.अगास ता.२१-८-३१, श्रावण, १९८७ "नथी धर्यो देह विषय वधारवा; नथी धर्यो देह परिग्रह धारवा."-श्रीमद् राजचंद्र संपूर्ण लोक त्रिविध तापसे जल रहा है। कहीं शांति नहीं है। मात्र सत्स्वरूप आप्त पुरुष श्री सद्गुरु परमकृपालुदेव श्रीमद् राजचंद्र प्रभु या उनका दृढ़ निश्चय जिन्हें है, ऐसे ज्ञानीके आश्रित ही उस त्रिविध तापसे दूर रहनेवाले हैं। अर्थात् जिन पुरुषोंने सम्यक्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रयकी प्राप्ति की है उसकी श्रद्धा जिस संतको हो चुकी है, उनके समागमसे जो सद्गुरु पर श्रद्धा हुई है ऐसे सम्यग्दृष्टि पुरुष ही उस तापसे बचे हैं और कैसे बचाना यह भी उन्होंने ही जाना है। वैसे ही हमें भी, उन संतने जिसे माना है उसे ही मानना चाहिये । अन्यत्र दृष्टि रखने योग्य नहीं है। अपनी कल्पनासे जीव भटका है, अतः उन संतने जिसे माना है उसे ही मानना योग्य है। उससे कम-ज्यादा अपनी कल्पनासे माने वह दोषपूर्ण है ऐसा समझें। अतः उन संत द्वारा कथित पर ही प्रेम, भाव, भक्ति करने योग्य है जी। उन्हींके गुणगान करें। अन्यत्र कहीं भी प्रेम ढोलना, प्रेम करना उचित नहीं है। उदय कर्ममें भी घबराना, अकुलाना उचित नहीं । समभावपूर्वक भोग लेना चाहिये जी। ★ ★ "सुनो भरत, भावी प्रबल, विलखत कहे रघुनाथ; हानि-वृद्धि, जन्म-मृत्यु, जश-अपजश विधि हाथ." "जा विध राखे राम, ता विध रहिये." संपूर्ण लोक त्रिविध तापसे जल रहा है। सहनशीलता, क्षमा ही मोक्षका भव्य द्वार है। कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy