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________________ पत्रावलि-१ ७९ भविष्यमें क्या होगा और क्या नहीं, यह वृद्धावस्थाके कारण मन पीछे ही लौटता रहा है। दिन-प्रतिदिन मृत्युकी स्मृति रहनेसे 'हे जीव! आत्मामें भाव रहें तो अच्छा' ऐसा होता रहता है जी। १२६ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे.अगास ता.२९-९-३० धन, पैसा, कुटुंब, परिवार आदि कुछ भी चाहने योग्य नहीं है। तथा महान व्रत ब्रह्मचर्य है, वह हाथमें आ गया है। उसके विषयमें किसी प्रकारके विकल्प किये बिना, किसी प्रकारका अहंकार किये बिना, उसका पालन करनेसे भगवानने महा लाभका कारण कहा है। क्या होगा? कैसी गति मिलेगी? आदिके संबंधमें कोई विकल्प करना योग्य नहीं। वृत्तिको रोककर स्मरणमें लगाना, यह तप है। यही धर्म है। सत्पुरुषार्थमें रहना योग्य है। मनके कारण सब है। बँधे हुए जा रहे हैं, अतः घबराने जैसा है ही नहीं। जो आये हैं वे जा रहे हैं। उसमें क्षमा-सहनशीलतासे आनंद अनुभवरूप आँखसे देखें। सत्पुरुषके बोधसे सद्विचाररूपी द्वार खोलकर ज्ञानचक्षुसे अंतर्यामी भगवानके दर्शन करें। 'समयं गोयम मा पमाए' समयमात्रका प्रमाद कर्तव्य नहीं है। इसे विचारपूर्वक समझनेकी आवश्यकता है। 'कर विचार तो पाम' यह ज्ञानीका वचन है सो सत्य है जी। १२७ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे.अगास पौष सुदी ४, बुध, १९८७ “विद्युत लक्ष्मी प्रभुता पतंग, आयुष्य ते तो जलना तरंग; पुरंदरी चाप अनंगरंग, शुं राचिये त्यां क्षणनो प्रसंग?" "भोग बुरे भवरोग बढ़ावें, वैरी है जग जीके, बेरस होय विपाक समय अति, सेवत लागे नीके; वज्र अग्नि विषसे विषधरसे, हैं अधिके दुःखदायी, धर्मरतनके चोर प्रबल अति, दुर्गति पंथ सहायी. मोह उदय यह जीव अज्ञानी, भोग भले कर जाने, ज्यों कोई जन खाय धतूरा, सो सब कंचन माने; ज्यों ज्यों भोग संयोग मनोहर, मनवांछित जन पावै, तृष्णा नागिन त्यों त्यों डंके, लहर लोभ विष आवै.' (पार्श्वपुराण) देहसे आत्मा भिन्न है, अरूपी है। "श्री सद्गुरुने कहा है ऐसे निपँथ मार्गका सदा ही आश्रय रहे। मैं देहादि स्वरूप नहीं हूँ और देह स्त्री पुत्रादि कोई भी मेरे नहीं है। मैं तो शुद्ध चैतन्यस्वरूप अविनाशी आत्मा हूँ। यों आत्मभावना करनेसे रागद्वेषका क्षय होता है।" इतना शेष भव यदि जीव आत्मार्थमें बितायेगा तो अनंत भवोंकी कसर निकल जायेगी। उपयोग ही आत्मा है और आत्मा ज्ञान-दर्शन-चारित्रमय धर्मस्वरूप है। वृत्ति क्षण-क्षण बदलती है, उस वृत्तिको रोकें । मन, चित्त, वृत्तिको परभावसे आत्मामें लौटावें। शुद्ध भावमें पुरुषार्थ करें। प्रमाद शत्रु है। शुभ राग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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