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________________ ८० उपदेशामृत और शुभ योग (मन, वचन, काया) के परिणाम रखनेसे स्वर्गगति या पुण्य होता है। अशुभ राग या अशुभ योगसे पापबंध होता है, अधोगति होती है। ऐसे बुरे भाव न करें। जीवको निकम्मा न छोड़ें। मैं असंग हूँ। इतना भव पूर्वके उदयसे पुण्यके योगसे यदि व्रतनियमका जीवनपर्यंत पालन कर सत्शीलमें बितायेंगे तो जीव निकटभवी होकर, सम्यक्त्व प्राप्तकर अनंत सुखको प्राप्त करेगा। अतः मनके भावको आत्मामें लावें । ऐसा योग बार बार मिलना दुर्लभ है। सावधान हो जाने जैसा है। एक बार परमात्माका नाम मात्र लिया जाय तो कोटि भवके पापोंका नाश हो जाता है। अतः सावचेत होकर स्मरण करना योग्य है। सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रयकी आराधना त्रैलोक्यका आधिपत्य प्राप्त कराती है, परमात्मपद प्राप्त कराती है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके अनुसार परदेशमें पूर्वके उदयकर्मसे जीवात्माको अन्नजलकी स्पर्शना होती है। दूर देशमें होने पर भी इस विषयका विकल्प कर आर्तध्यान, रौद्रध्यान, खेद कर्तव्य नहीं है। यदि अपने भाव अच्छे होंगे तो जो दूर हैं वे भी पास हैं। अन्यथा पासवाले भी दूर ही हैं। "(१) प्रज्ञा (विवेक)-यह तत्त्वज्ञानका लक्ष्यबिंदु है। (२) नम्रता-यह दैवी गुण है। नम्रताका प्रभाव ही कुछ और है, वह सर्वशक्तिमान है। (३) शांति-जिसमें अखंड शांतवृत्ति नहीं, उसमें सत्यका वास नहीं। (४) जो किसीका बुरा न करे उसे भय किसका? (५) प्रत्येक धर्मका उद्देश्य निर्मल अंतःकरण रखना है, उसीसे ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त होता है। छोटे बच्चेके समान निर्दोष हृदयके बनें। (६) आध्यात्मिक जीवन बितानेसे अधम वासना वशीभूत हो सकती है। (७) तिरस्कार, स्वार्थवृत्ति और शोकको थोड़ा भी आश्रय न दें। (८) पूर्ण श्रद्धा, ज्ञान, पूर्ण शांति यही स्वर्गका राज्य है। (९) हे आत्मन्! तेरा सनातन अंतरंग सत्त्व वर्तमान कालमें ही बता दे। (१०) दृढ़ बनें। एक लक्ष्य रखें, अपने निश्चयको सदैव सतेज करें। सभी संदेह, आवरण और उसके कारण दूर करें और अपूर्व श्रद्धापूर्वक विवेकका उपदेश अमलमें लावें। (११) जैसे लाखों ईंटोंसे शहर बनता है, वैसे ही लाखों विचारोंसे चारित्र-मनका निर्माण होता है। प्रत्येक जीवात्मा अपने आपका निर्माण करनेवाला है। (१२) जो जीवात्मा अपने मनमें पवित्र और उत्तम विचार भरते हैं, उन्हें ही उत्तमोत्तम सुख आ मिलते हैं। (१३) जो मनुष्य अपनी आसुरी वृत्तिके सामने निर्भयतासे खड़ा नहीं रह सकता, वह त्यागके ऊबड़खाबड़ शिखरों पर नहीं चढ़ सकता। (१४) जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि। (१५) भले बनें और भला करें, यही धर्मका सार है। (१६) परमपद और कृपानिधि आज्ञाकारी सेवककी प्रतीक्षा करते हैं।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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