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उपदेशामृत भिन्नरूपमें देखा है, उस आत्माको नमस्कार है। तथा, किसी जीवात्माको यथातथ्य आत्माका अनुभव नहीं है, परंतु उसे ज्ञानी द्वारा अनुभूतकी मान्यता श्रद्धा होनेपर भी सम्यक्त्व कहा जाता है।
यह बात कुछ अंतरकी मान्यताके भावसे निःस्पृहतासे कही गई है। जो ज्ञानी है उसे अज्ञानी कहा जाय, श्रद्धान किया जाय, माना जाय तो भी भूलभरी जोखिम है। अतः अब मध्यस्थ रहकर जो यथातथ्य है वह मान्य है ऐसे विचारमें भाव रखे तो वह भूलभरी बात कहलायेगी? अब कर्तव्य क्या है? यथावसर समागम सत्संगमें आत्मार्थीको विचार करना चाहिये ऐसा समझमें आता है। अपनी कल्पना और अपनी मान्यतासे प्रवृत्ति कर जीव अनादि कालसे भटका है। 'श्रीमद् राजचंद्र' मेंसे संस्मरण पोथी-१ में अंक ३७ वाँ विचार करनेका अनुरोध है । गुरुगमकी आवश्यकता है। इसमें बोधिपुरुषके बोधकी अति आवश्यकता है। ‘पावे नहीं गुरुगम बिना, एही अनादि स्थित' ऐसा वचन ज्ञानीका है वह भी विचारणीय है जी।।
१२३ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे.अगास
___ ता.२६-८-३०,सं.१९८६ 'वृत्तिको रोकना' ऐसा महापुरुषोंका वचन सुना है, वह चमत्कारी है, आत्माको परम हितकारी है।
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१२४ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे.अगास
ता.२८-८-३०, श्रावण सुदी ४, १९८६ सत्श्रद्धामें पुरुषार्थ करना चाहिये, उसके बदले भ्रांतिमें और 'समझमें आ गया है, जान लिया है', ऐसी भूलमें बहा जा रहा है। इस संबंधमें विचार और सावधानीके लिये सत्संगकी विशेष विशेष आराधना करें। इच्छा-संकल्पादि विषय-कषायमें चले जाये वह असत्संग है। अतः किसी सत्पुरुषके वचनामृतके विचारमें यथासंभव जीवन बिताना योग्य है। जीवको कालका भरोसा नहीं है। दुर्लभमें दुर्लभ संयोग यहाँ सहज मिले हैं उसके चिंतनमें-आत्माकी भावनामें अधिक विचार करना चाहिये । मनुष्यभव दुर्लभ है। रोग सहित काया हो तो भी मनुष्यभव कहाँ है? ब्रह्मचर्य बड़ा साधन है। अंतर्वृत्तियोंको रोकना ब्रह्मचर्य है जी। जीव समय-समय मर रहा है।
१२५ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे.अगास
भाद्रपद वदी १, मंगल, १९८६ हे प्रभु! सद्गुरुकी शरणसे अन्य कोई इच्छा नहीं है और रखनी भी नहीं है। उनकी कृपासे उनकी शीतल छायामें सर्व शांति प्रवर्तित है जी। उन्हींका योगबल सब करता है जी । हमसे तो कुछ हो नहीं सकता। हे प्रभु! इस आश्रमकी जो व्यवस्था हुई है वह उनकी कृपा और योगबलका फल है। मेरी अल्पमतिसे कुछ सोचा हुआ नहीं हुआ। हे प्रभु! मुझे तो ऐसा लगा कि सब अच्छा ही प्रकाशमें आया।
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