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________________ पत्रावलि - १ ७७ अंतरात्मासे परमात्माकी भक्ति करता हूँ, भावना करता हूँ, वह भवपर्यंत अखंड जागृत रहो ! जागृत रहो ! यही माँगता हूँ, वह सफल हो, सफल हो ! शांतिः शांतिः शांतिः १"दिलमां कीजे दीवो मेरे प्यारे, दिलमां कीजे दीवो ।” १२१ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे. अगास ता. ७-७-३० ज्ञानी पुरुषोंके वचनोंमें दृष्टि - अंतरदृष्टि - नहीं रखकर इस जीवने लौकिक दृष्टिसे सामान्यता कर रखी है, जिससे आत्मभाव स्फुरित नहीं होता । सत्संग यह एक अमूल्य लाभ मनुष्यभवमें लेने योग्य है । सत्संगकी आवश्यकता है। उसके कारण मनुष्यभवमें सम्यक्त्वका अपूर्व लाभ होता है । अनंतकालसे जीवने इस संबंध में विचार नहीं किया है और 'मैं ऐसा करूँ, वैसा करूँ' यों जीवको अहं - ममत्व रहता है । प्रमादमें रहेगा तो फिर पुनः पुनः पश्चात्ताप होगा । चेतने जैसा है। अधिक क्या कहें ? I आप गुणी हैं। हमने तो इस पत्रसे आपको याद दिलाया है। कुछ स्वार्थ के लिये नहीं, पर आत्माके लिये निःस्पृहतासे, निःस्वार्थतासे आपको विदित किया है । मनुष्यभव प्राप्तकर सावधानी रखनी चाहिये। हजारों रुपयोंवाला अधिक रुपयोंके लिये संसारमें व्यापार-धंधे में लगता है, किन्तु यह पानी बिलौने जैसा है । कालका भरोसा नहीं । लिया या लेगा ऐसा हो रहा है । फिर यह जीव किस कालकी प्रतीक्षा कर रहा है ? यह विचारणीय है । समय धर्ममें बीत रहा है या अन्य भवभ्रमणके निमित्त कारणोंमें ? यदि यह समझमें आये तो जीव कुछ विचार करे । प्रमादमें असावधान रहने जैसा नहीं है । संसार - व्यवसायके कामोंमें अपनी इच्छानुसार होनेवाला नहीं, अतः 1 विचारवानके लिये विचारणीय है । श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे. अगास ता. २२-८-३० भेदज्ञानकी आवश्यकता है । परंतु अपनी समझ, क्षयोपशमसे अथवा न्यायनीति, सत् - विषयक भाषा सुनकर अपने अनुभवमें स्वयं मान लेता है, उसे श्री तीर्थंकरादिने मिथ्या मान्यता कहा है और उसे मृषा कहा है, वह विचारणीय है । ज्ञानियोंने, महा ज्ञानीपुरुषों द्वारा अनुभूतको सत्य कहा है, वह यथातथ्य है। आत्मार्थीको इस संबंध में विशेष लक्ष्य देने जैसा है जी । आत्मस्वरूपके गवेषी, जिज्ञासु जो आत्मा हो गये हैं, उन्होंने यों बताया है "" + "ताहरी गति तुं जाणे हो देव, स्मरण भजन ते वाचक यश करे जी. १२२ यद्यपि उपयोगके बिना आत्मा नहीं है, पर जो ज्ञानीके उपयोगमें कुछ और ही समझमें आया है, अनुभवमें आया है वह प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ कि राग द्वेष अज्ञानसे रहित ऐसा आत्मा द्रष्टा १. हे प्यारे भाई ! अपने दिलमें समकितरूपी दीपक प्रकट करो । + उपाध्याय श्री यशोविजयजी कहते हैं कि हे देव! तेरी गति तू ही जानता है । मैं तो केवल तेरा स्मरण, भक्ति ही करता हूँ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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