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________________ पत्रावलि-१ ७१ शोचना धरे? कृष्णने करवू होय ते करे।" मनुष्यभव दुर्लभ है। "होनहार बदलेगा नहीं और बदलनेवाला होगा नहीं।" दृढ़ निश्चय रखकर जीवको जो करना है वह है एकमात्र दृढ़ श्रद्धा । सत्संग-समागममें सुनकर, जान कर, एकमात्र उसीका आराधन किया जायेगा तो अनेक भवोंकी कसर निकल जायेगी। यह जीव प्रमादमें, गफलतमें उसे जाने देगा तो पीछे पछताना होगा, खेद होगा। कारणके बिना कार्य नहीं होता। अतः हो सके तो कोई पुस्तक-परमकृपालुदेवका वचनामृत-वाचन करनेका रखें। १११ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे.अगास __भाद्रपद वदी ३, १९८५ काल बहुत कठिन है। जैसे भी हो सत्पुरुष, सद्गुरुकी दृष्टिसे, उनकी आज्ञासे आराधना करनी चाहिये। विशेष यह लिखना है कि आपको या आप जैसोंको रंगरागके परिणाम विचारकर आत्मा बाह्य परिणतिमें जाये वैसा नहीं करना चाहिये। जैसे वैराग्य-उपशममें परिणति जाय वैसे 'योगवासिष्ठ' का एक भाग मुमुक्षु प्रकरण और वैराग्य प्रकरण विचारणीय है। ‘पद्मनंदी पंचविंशति' ग्रंथ भी पढ़ना, विचारना अथवा वचनामृत पर विचार करना चाहिये। अर्थ पर विचार करते समय अपनी कल्पनाके आधार पर भावोंको बह जाने देना विषके समान समझना चाहिये। ये भेजी हुईं गरबियाँ परमकृपालुदेव द्वारा रचित है। इनमेंसे कोई भी अभी प्रसिद्ध नहीं हुई है, प्रसिद्ध करनेका विचार है जी। जीवका बाह्य दृष्टिमें खिंच जाना संभव जानकर किसीको नहीं दी गई है। ११२ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे.अगास ता.७-१२-२९सं.१९८६ देवाधिदेव परमकृपालुदेवने आत्माको यथातथ्य देखा है, वही देखनेकी इच्छा, वृत्ति कर्तव्य है जी। अन्य कहीं भी प्रेम-प्रीति करने जैसा नहीं है। हे प्रभु! आपको धन्यवाद है कि इस कालमें आपको परपदार्थसे, परभावसे मुक्त होनेकी इच्छा है और यथातथ्य सन्मुख दृष्टि है। अतः नमस्कार है जी। इस दीन दास 'लघु'को भी इस यथातथ्य स्वरूपकी भावना भवपर्यंत अखण्ड रहे! और सभीको इसके सिवाय अन्य कुछ कहना नहीं है। वह गुरुकृपासे सफल हो! ११३ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे.अगास कार्तिक सुदी ५, ज्ञानपंचमी, १९८६ जीव अनादिकालसे अपने स्वच्छंदसे, अपनी कल्पनासे धर्माराधनकी इच्छा करता है कि मुझे सत्संग नहीं है, इसकी अपेक्षा यदि मैं सत्संगमें होता तो मुझे बहुत लाभ होता, ऐसी कल्पनाएँ अनेक * स्त्रीनीतिबोधक गरबावली, श्रीमद् राजचंद्र आश्रमका एक प्रकाशन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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