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________________ ७२ उपदेशामृत जीवात्माओंको हो जाती है। इसी मोहनीयकर्मके संकल्प-विकल्पसे जीव समझता है कि 'मैं अपनी दया कर रहा हूँ', किन्तु यह दया नहीं है। अपनी दया तो सत्पुरुष देवाधिदेव सद्गुरु-कथित आज्ञाका धैर्यसे, समतासे, अपने विकल्प बंद कर, आनेवाले विकल्पोंको भूलकर आराधन करना वह है। उस आज्ञाके अनुसार धैर्यसे पुरुषार्थ करनेके भाव परिणाम लावें। अपनी कल्पना यह कि मुझे सत्संग हो तो आराधना बहुत हो सकती है; ऐसा सोचकर अपने उदय-प्रारब्धको धक्का मारकर अपनी इच्छासे, स्वच्छंदसे अनेक जीवात्मा प्रवृत्ति करते हैं। यह जीवकी भूल है। विरह आदि, वेदनीय आदिके उदयमें जीव घबराता है, किन्तु अपनी कल्पनासे कल्याण मानकर वैसी प्रवृत्ति करते हुए जीवको विचार करना चाहिये। ___'जीव, तुं शीद शोचना धरे? कृष्णने करवू होय ते करे।' ऐसी समझ रखकर जो समताभाव धारण करना चाहिये, वह जीव करता नहीं है। जो-जो क्षेत्र-स्पर्शना उदयमें हो उसके अनुसार समतासे काल व्यतीत कर ऐसे समयमें उच्च भावना-सत्संगकी भावना रखें, किन्तु बलात् उदयको धक्का मारकर शीघ्रता करना उचित नहीं। जितनी शीघ्रता उतना ही विलंब, ऐसा जानकर समता, क्षमा, सहनशीलता, चित्तकी प्रसन्नतासे वाचन-चिंतनके निमित्त मिलाकर शांत परिणामसे भावना करें। जीवने क्या क्या दुःख नहीं उठाये? कर्मके उदयमें आनेपर जीवको सब भोगना पड़ा है। उसमें आर्तध्यान नहीं होने देना चाहिये। यह बात ध्यानमें रखेंगे तो आत्माको हितकारी, कल्याणकारी है। मनके कारण, कल्पनाके कारण यह सब है। क्षेत्र-स्पर्शना जहाँकी होती है वहाँ काल व्यतीत होता है। ११४ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे.अगास, __कार्तिक वदी ६, शुक्र, १९८६ हे प्रभु! अब तो किसी प्रकारकी ममता, मोह, इच्छा, संकल्प-विकल्प करनेके भाव नहीं है। फिर भी पूर्वके कर्मोदयसे चित्तवृत्तिमें संकल्प-विकल्प स्फुरित हो जाते हैं, घबराहट होती है, अच्छा नहीं लगता। फिर वृद्धावस्था हो गई है, इस कारण वेदनीय कर्म आते हैं, वे समभावसे देवाधिदेव परमकृपालुदेवके वचनसे, उनके बोधसे, यथाशक्य समता, क्षमा, धैर्यसे सहन करना याद रहता है। तथापि सत्संगके बिना अच्छा नहीं लगता। जब जागृतिमें भावना परिणमित होती है तब अन्य सब विस्मृत हो जाता है, वह ठीक लगता है। किन्तु वैसा अधिक समय नहीं रहता और उपयोग अन्यत्र चला जाता है तब अच्छा नहीं लगता । बाह्यदृष्टिमें चैन नहीं पड़ता और किसी जीवात्माके साथ बात करनी पड़े सो अच्छा नहीं लगता, थकान लगती है। ऐसा होता है उसका क्या करें ? कोई आत्महितकारी बात करनेवाला हो और बैठे बैठे या सोते-सोते सुनें तो ठीक लगता है। किन्तु इस कालमें वैसा संयोग तो दिखाई नहीं देता। कृपालुदेवके वचन हैं कि इस कालमें सत्संगकी कमी है। कुछ अच्छा नहीं लगता। ___आत्माका बोध सत्पुरुषने दिया है कि आत्मा है उसका नाश नहीं होता यह निश्चित है। फिर भी मोह घबराहट कराता है। यह घबराहट किसे कहें ? सद्गुरुके वचन हैं कि कदाचित् सातवीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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