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उपदेशामृत
परामर्श और मेल-जोलसे आत्माका हित हो, राग द्वेष कषाय कम हों और क्लेश मिटकर अहिंसाभावसे भावहिंसा दूर हो वैसी इच्छा थी । किन्तु कालकी कठिनताको देखकर हमारा सोचा हुआ कुछ होता नहीं ।
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जगतकी रचना चित्र-विचित्र है । इसमें दृष्टि रखने जैसा नहीं है । कोई कुछ बोलता है तो कोई कुछ बोलता है । उनके सामने हमें क्या देखना ? उनके सामने दृष्टि करनी ही नहीं है । आत्मकल्याण, आत्महितार्थ जैसे हो सके वैसे कर, गुरुकी शरणमें रहकर सर्व परभावसे मुक्त होना है । सब छोड़ने जैसा है ।
अहो ! इस कठिन कालमें इस मनुष्यभवमें जो हो सके वह कर लेना चाहिये । 'वनसे भटकी कोयल' जैसा है । किसीसे किसीका संबंध नहीं है । 'अकेला आया है, अकेला जायेगा ।' ऐसा हो रहा है। ॐ शांतिः शांतिः शांतिः
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जीवको अनंतकालसे श्रद्धा तो है ही, किन्तु जिसके भाग्य पूर्ण होंगे उसीकी दृष्टि बदलेगी । सन्मार्ग- सन्मुखदृष्टि होना महा महा दुर्लभ है ।
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श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे. अगास, अषाढ़ सुदी १४, मंगल, १९८५
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'संपूर्ण लोक त्रिविध तापसे जल रहा है।' सहनशीलता, 'क्षमा ही मोक्षका भव्य द्वार है ।' कोई रहनेवाला नहीं है । वृत्तिको रोकना चाहिये। आत्मभावनामें, निजभावमें परिणाम समयसमयपर लाने चाहिये । मनको परभाव-विभावमें जाते हुए यथाशक्ति रोकना चाहिये ।
श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास भाद्रपद वदी २, १९८५
यह जीव निमित्ताधीन है । अतः साधक - निमित्त मिलानेका पुरुषार्थ करना चाहिये । प्रमादसे जीव दुःख खड़ा करता है । उस प्रमादको छोड़नेके लिये सत्पुरुषोंके वचनामृत पर विचार करना चाहिये । क्षण-क्षण काल बीत रहा है, वापस नहीं लौटता । लिया या लेगा यों हो रहा है । काल सिर पर खड़ा है । यह जीव किस कालकी प्रतीक्षा कर रहा है ? यह विचारणीय है जी ।
'फिकरका फाँका भरा उसका नाम फकीर' । सत्संगके अंतरायमें उदास न होकर, उदासीनता ( समभाव ) कर्तव्य है । घबराने जैसा नहीं है। मार्ग बहुत सुलभ है । किन्तु जीवको जहाँ वृत्ति रखना, करना, जोड़ना, प्रेम करना चाहिये उसमें अज्ञानसे प्रारब्धके उदयसे आवरणके कारण जीव • दिशामूढ़ हो गया है । अतः थोड़ा अवकाश निकालकर सत्पुरुषके वचनामृतमें गहन ध्यान- विचारसे अंतरभावमें आना चाहिये, अंतरभावमें अधिक रुकना चाहिये । बाह्यभावके निमित्तकारणसे वृत्ति चलित हो जाती है, उसकी जागृति रख, एक शुद्ध ज्ञान-दर्शन - चारित्रमय आत्मा है, उसमें प्रेम उपयोग लाकर अपने स्वभावमें सदा मगन रहें। अन्य सब भूल जाना है । " क्षण-क्षण बदलती स्वभाववृत्ति नहीं चाहिये ।" "सुखदुःख मनमां न आणीए घट साथे रे घडियां ।” “जीव ! तुं शीद
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