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________________ उपदेशामृत परामर्श और मेल-जोलसे आत्माका हित हो, राग द्वेष कषाय कम हों और क्लेश मिटकर अहिंसाभावसे भावहिंसा दूर हो वैसी इच्छा थी । किन्तु कालकी कठिनताको देखकर हमारा सोचा हुआ कुछ होता नहीं । ७० जगतकी रचना चित्र-विचित्र है । इसमें दृष्टि रखने जैसा नहीं है । कोई कुछ बोलता है तो कोई कुछ बोलता है । उनके सामने हमें क्या देखना ? उनके सामने दृष्टि करनी ही नहीं है । आत्मकल्याण, आत्महितार्थ जैसे हो सके वैसे कर, गुरुकी शरणमें रहकर सर्व परभावसे मुक्त होना है । सब छोड़ने जैसा है । अहो ! इस कठिन कालमें इस मनुष्यभवमें जो हो सके वह कर लेना चाहिये । 'वनसे भटकी कोयल' जैसा है । किसीसे किसीका संबंध नहीं है । 'अकेला आया है, अकेला जायेगा ।' ऐसा हो रहा है। ॐ शांतिः शांतिः शांतिः १०९ जीवको अनंतकालसे श्रद्धा तो है ही, किन्तु जिसके भाग्य पूर्ण होंगे उसीकी दृष्टि बदलेगी । सन्मार्ग- सन्मुखदृष्टि होना महा महा दुर्लभ है । ११० श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे. अगास, अषाढ़ सुदी १४, मंगल, १९८५ Jain Education International 'संपूर्ण लोक त्रिविध तापसे जल रहा है।' सहनशीलता, 'क्षमा ही मोक्षका भव्य द्वार है ।' कोई रहनेवाला नहीं है । वृत्तिको रोकना चाहिये। आत्मभावनामें, निजभावमें परिणाम समयसमयपर लाने चाहिये । मनको परभाव-विभावमें जाते हुए यथाशक्ति रोकना चाहिये । श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास भाद्रपद वदी २, १९८५ यह जीव निमित्ताधीन है । अतः साधक - निमित्त मिलानेका पुरुषार्थ करना चाहिये । प्रमादसे जीव दुःख खड़ा करता है । उस प्रमादको छोड़नेके लिये सत्पुरुषोंके वचनामृत पर विचार करना चाहिये । क्षण-क्षण काल बीत रहा है, वापस नहीं लौटता । लिया या लेगा यों हो रहा है । काल सिर पर खड़ा है । यह जीव किस कालकी प्रतीक्षा कर रहा है ? यह विचारणीय है जी । 'फिकरका फाँका भरा उसका नाम फकीर' । सत्संगके अंतरायमें उदास न होकर, उदासीनता ( समभाव ) कर्तव्य है । घबराने जैसा नहीं है। मार्ग बहुत सुलभ है । किन्तु जीवको जहाँ वृत्ति रखना, करना, जोड़ना, प्रेम करना चाहिये उसमें अज्ञानसे प्रारब्धके उदयसे आवरणके कारण जीव • दिशामूढ़ हो गया है । अतः थोड़ा अवकाश निकालकर सत्पुरुषके वचनामृतमें गहन ध्यान- विचारसे अंतरभावमें आना चाहिये, अंतरभावमें अधिक रुकना चाहिये । बाह्यभावके निमित्तकारणसे वृत्ति चलित हो जाती है, उसकी जागृति रख, एक शुद्ध ज्ञान-दर्शन - चारित्रमय आत्मा है, उसमें प्रेम उपयोग लाकर अपने स्वभावमें सदा मगन रहें। अन्य सब भूल जाना है । " क्षण-क्षण बदलती स्वभाववृत्ति नहीं चाहिये ।" "सुखदुःख मनमां न आणीए घट साथे रे घडियां ।” “जीव ! तुं शीद I For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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