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________________ पत्रावलि-१ ६९ होना है, ऐसा किसी सत्संगसे सुनने पर भी सत्पुरुषकी आज्ञानुसार यह जीव प्रवृत्ति नहीं करता तब उसके क्या हाल होंगे? जीवको दुःख आता है, मरण होता है तब घबराता है, अकुलाता है, कोई बावला हो जाता है, बेचैन होता है। उसका द्रष्टा आत्मा है। यह विचार छूट जानेसे घबराकर, अकुलाकर आर्तध्यान कर जीव दुर्गतिमें जाता है। अतः ज्ञानीपुरुषके वचनामृतमें, पत्रोंमें जो-जो उपदेश हैं उनका वाचनचिंतन कर्तव्य है जी। ___सहनशीलता, क्षमा, धैर्य कर्तव्य है जी। घबरानेकी आवश्यकता नहीं है। कर्म किसीको नहीं छोड़ता। "जितनी शीघ्रता उतना कच्चापन, जितना कच्चापन उतना खट्टापन" समता, दयाकी भावनासे आत्मभावनामें भाव लाकर समय व्यतीत करें। जीवको निकम्मा न छोड़े। थोड़ी देर पढ़ें, थोड़ी देर चिंतन करें, थोड़ी देर सत्संग-समागम करें, थोड़ी देर व्यापार आदिमें लगाये। इस प्रकार समय बितायें। साहस रखें। आत्मा अनंत सत्ताका स्वामी है। वह इस संसारकी मायामें, संसारके मोहजालमें फँसकर घबराता है। उपयोग ही धर्म है, परिणाम ही बंध है। जब भी बुरे परिणाम हों तब अच्छे परिणामोंमें, अच्छे भावोंमें लौट जायें, प्रमाद न करें। माया ठगती है। अभी थोड़ी देर में वृत्ति बदल दूंगा, ऐसा सोचे तब तक तो जीव मधुबिन्दु जैसी विषयभोगकी इच्छाओं, तृष्णाओंमें लिप्त हो जाता है। उसे वहाँ टिकने न दें। यदि टिकने दिया तो दावानल अग्निसे भी अनंतगुणा दुःख उपार्जित करे ऐसी अरजिसे अकुलाकर, जीव पुण्यकी हानि कर, पापके दल संचित कर दुर्गतिमें जाता है। अतः पुरुषार्थ, गुरुआज्ञासे जैसा कहा गया है वैसा करें। साता-असाता कर्म जीवने जैसा बाँधा है वैसा भोगता है। जहाँ जाये वहाँ लड्डु नहीं बँटते। जो सुख दुःख आये उन्हें समभावसे भोग लें, भूलं न करें। एक विश्वास रखें। आत्मा अनंत सुखका स्वामी है और बाह्य सुखकी इच्छा रख वह भिखारी बन गया है। सोचा हुआ हो नहीं पाता अतः समभाव रखें। ॐ शांतिः शांतिः शांतिः १०८ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे.अगास ज्येष्ठ वदी ३, मंगल, १९८५ विनय, प्रेम, भक्ति, मैत्रीभाव आदि भावनाओंका वर्णन सुनकर जीव अहंकारसे स्वच्छंद नहीं रुकनेसे बड़ी भूल करता है। अपनी मतिकल्पनासे कुछ शास्त्र-ग्रंथ आदि पढ़कर अथवा किसी समागमसे वचन सुनकर जीव कथन करनेका, उपदेश देनेका इच्छुक हो जाता है, यह भूल है। किसी पुण्यके योगसे सत्पुरुषके वचनामृत सुनकर, उसमेंसे दृष्टांत देने लगता है या अपनी मतिके अनुसार सबको अच्छा दिखाने, भला दिखानेके लिये सूक्ष्म मान अहंकारसे "मैं समझता हूँ' यों भ्रमसे प्रतिबंधमें पड़ जाता है और 'नहीं दे तू उपदेशकूँ' ऐसे सत्पुरुषके वचनोंको भूलकर जीव धोखा खाता है। अपने दोष दिखाई नहीं देते। ऐसे वार्तालापसे जीव भ्रममें पड़कर अनंतानुबंधीके कारण अनेक विकल्पोंमें अपनी समझसे प्रवृत्ति करता है। यह देखकर दया आती है। १. प्रतिबंध आत्मार्थमें बाधक कारण प्रतिबंध है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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