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________________ पत्रावलि-१ ६३ ९६ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास ता.५-६-२७ "आप समान बल नहीं, मेघ समान जल नहीं।" जीवका शिव होता है। अतः पुरुषार्थ कर्तव्य है। आप ही तारेंगे और आपकी कृपासे ही इस प्रकार मिले ऐसा नहीं करना चाहिये। कृपालुदेव देवाधिदेव कथित मंत्र, उनकी आज्ञापूर्वक विचारध्यान, मननमें दिन-प्रतिदिन वृत्तिको रोकें । अच्छे विचारमें रहें। मन अन्यत्र जाता हो तो उसे रोकें और सत्पुरुषके वचनामृतके वाचन, चिंतन, स्मरणमें उपयोगको लगावें । उपयोग अर्थात् आत्मा। ज्ञान-दर्शन-चारित्र अर्थात् जानना, देखना, स्थिर होना। आत्मा है, नित्य है, कर्ता है, भोक्ता है, मोक्ष है, मोक्षका उपाय है। इस विचारमें चित्तको लगायें, मनमें विचार करें। उसमेंसे मन अन्यत्र जाता हो तो उसे रोकें । उद्यम बिना कुछ मिलेगा नहीं। पाव घंटा, आधा घंटा या एक घंटे तक यों नित्य परिश्रम करनेमें समय बितायें। पाव घंटा वाचन, पाव घंटा अर्थका विचार, शब्दके अर्थ पर विचार करें, जैसे कि "छूटे देहाध्यास तो, नहि कर्ता तुं कर्म; नहि भोक्ता तुं तेहनो, ए ज धर्मनो मर्म.' इसके अर्थका विचार करें। ऐसा करते हुए यह न सोचें कि मन भाग जाता है, अन्यत्र चला जाता है। ऐसा जो होता है वह पूर्वकर्म है, वह विघ्न डालता है। ऐसा होने पर घबरायें नहीं। उस अर्थके विचार पर मनको वापस लौटायें। यों (मनसे) लड़ाई करें। जितना हो सके उतना करें। पूरे दिन उससे संबंध रखें, उसमें परहेजका पालन करें-'सात व्यसन तथा नाटक, ख्याल, हँसी मजाक, दो-चार मिलकर विनोद करना' आदि न करें। मन विकारमें जाये वैसा न करें। बुरे निमित्त एकत्रित न करें। अच्छे अच्छे निमित्त मिलायें। अच्छे अच्छे वचनामृतके वचन सुननेका रखें । दोचार बैठे हों तब उन्हें सुनायें, उसमें सबकी वृत्ति, मनको संलग्न करें। __ आर्तध्यान न करें। होनहार बदलेगा नहीं और बदलनेवाला है वह होगा नहीं। अनहोनी होती नहीं। पूर्वभवमें बाँधे हुए भोगने पड़ते हैं। उन्हें भोगनेमें शोक करनेसे फिर जन्म-मरणके दुःख होते हैं। यह अवसर हार गया तो फिर नहीं मिलेगा। यों सोचकर अभी जैसे भी हो सद्विचारमें समय बितायें। जब भी बुरे विचार आयें तुरत उन्हें रोक दें। क्षमा, समता, धैर्य रखना सीखें । पूर्वबद्ध कर्मोंसे दुख-सुख आते हैं। अतः भविष्यमें बांधते समय विचार करना सीखें। किसी पर मोह न करें। मोहसे रागद्वेष होता है, बंधन होता है। समभाव रखें। सहन करना सीखें। जो मिले उसमें संतोष रखकर यह देह आत्माका कल्याण करनेके लिये, आत्माके लिये बितायेंगे तो जन्म मरणके अनंत भव छूट जायेंगे ऐसा समझें। जन्ममरणके दुःख छुड़ानेमें कोई समर्थ नहीं है अतः पानी आनेके पहले पाल बाँधना आवश्यक है। मनको परभावमें जाते रोककर अपने आत्मस्वभावमें बारंबार लगावें। ॐ शांतिः शांतिः शांतिः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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