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________________ ६२ उपदेशामृत भाव और ऐसे परिणामसे छूटनेका बोध किसी ज्ञानीके वचन सत्संगमें विचारकर हृदयमें धारण करने योग्य है जी । “यदि जीव अन्य पदार्थमें निजबुद्धि करे तो परिभ्रमण दशाको प्राप्त करता है और निजमें निजबुद्धि हो तो परिभ्रमणदशा टलती है । " इस बातको हृदयमें धारण करके, सत्संग- समागममें इस जीवको वह लाभ लेनेका अवसर है जी । * ९४ १" अनादरं यो वितनोति धर्मे, कल्याणमालाफल कल्पवृक्षे । चिंतामणि हस्तगतं दुरापं मन्ये स मुग्धस्तृणवज्जहाति ॥१९॥ निषेवते यो विषयं निहीनो धर्म निराकृत्य सुखाभिलाषी । पीयूषमत्यस्य स कालकूटं सुदुर्जरं खादति जीवितार्थी ॥ २३ ॥ - श्री अमितगति श्रावकाचार (प्रथम परिच्छेद) २" अर्थ - जो नीच पुरुष धर्मका निराकरण करी सुखका अभिलाषी विषयनिको सेवे है सो अमृतको त्यागि करि जीवनेका अर्थी प्रबल कालकूट विषकूं खाय है । " ( २३ अ० श्रा० ) जीवको उदयकर्मका फल भोगते हुए उदास न होकर, उदासीनता (समभाव ) कर्तव्य है जी । जागृत हो ! जागृत हो ! Jain Education International श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास चैत्र सुदी ७, गुरु, १९८३ देह छूटनेके बारेमें निर्भय रहना चाहिये । आत्मा अजर है, ज्ञानदर्शनमय है, देहके संयोगमें होने पर भी देहसे भिन्न है । उसे साता - असाता वेदनीय हो तो भी वह किंचित् मात्र भी दुःखमय नहीं है । आत्मा है सो मेरा स्वरूप है । ज्ञानीने उसे देखा है । देहके कारण वेदनीय है, उस वेदनीयका काल पूरा होने पर क्षय होता है । वहाँ उस वेदनीयका क्षय होनेपर, नाश होने पर, मृत्यु महोत्सव है । कर्मका नाश ही मृत्यु- महोत्सव है । हर्षशोक करने जैसा नहीं है । द्रष्टा बनकर देखा करें । श्रद्धा मान्यता तो यही रखें। सद्गुरु, प्रत्यक्ष पुरुष, सहजात्मस्वरूप परमगुरु ज्ञानदर्शनमय श्रीमद् राजचंद्र वे ही गुरु हैं जी । ॐ शांतिः शांतिः शांतिः श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे. अगास, कार्तिक वदी ११, गुरु, १९८३ ९५ १. कल्याण परंपरारूप फल देनेवाले कल्पवृक्षके समान जो धर्मका अनादर करता है ऐसा मूर्ख पुरुष वास्तवमें हाथमें आये हुए दुर्लभ चिंतामणिको तृणके समान वृथा फेंक देता है । २. जो नीच पुरुष धर्मको छोड़कर सुखके लिये विषयोंका सेवन करता है, वह जीनेकी आशासे अमृतको छोड़कर कालकूट विष खाता है ! For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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