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उपदेशामृत
भाव और ऐसे परिणामसे छूटनेका बोध किसी ज्ञानीके वचन सत्संगमें विचारकर हृदयमें धारण करने योग्य है जी ।
“यदि जीव अन्य पदार्थमें निजबुद्धि करे तो परिभ्रमण दशाको प्राप्त करता है और निजमें निजबुद्धि हो तो परिभ्रमणदशा टलती है । "
इस बातको हृदयमें धारण करके, सत्संग- समागममें इस जीवको वह लाभ लेनेका अवसर है जी ।
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१" अनादरं यो वितनोति धर्मे, कल्याणमालाफल कल्पवृक्षे । चिंतामणि हस्तगतं दुरापं मन्ये स मुग्धस्तृणवज्जहाति ॥१९॥ निषेवते यो विषयं निहीनो धर्म निराकृत्य सुखाभिलाषी । पीयूषमत्यस्य स कालकूटं सुदुर्जरं खादति जीवितार्थी ॥ २३ ॥ - श्री अमितगति श्रावकाचार (प्रथम परिच्छेद) २" अर्थ - जो नीच पुरुष धर्मका निराकरण करी सुखका अभिलाषी विषयनिको सेवे है सो अमृतको त्यागि करि जीवनेका अर्थी प्रबल कालकूट विषकूं खाय है । " ( २३ अ० श्रा० )
जीवको उदयकर्मका फल भोगते हुए उदास न होकर, उदासीनता (समभाव ) कर्तव्य है जी । जागृत हो ! जागृत हो !
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श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास चैत्र सुदी ७, गुरु, १९८३
देह छूटनेके बारेमें निर्भय रहना चाहिये । आत्मा अजर है, ज्ञानदर्शनमय है, देहके संयोगमें होने पर भी देहसे भिन्न है । उसे साता - असाता वेदनीय हो तो भी वह किंचित् मात्र भी दुःखमय नहीं है । आत्मा है सो मेरा स्वरूप है । ज्ञानीने उसे देखा है । देहके कारण वेदनीय है, उस वेदनीयका काल पूरा होने पर क्षय होता है । वहाँ उस वेदनीयका क्षय होनेपर, नाश होने पर, मृत्यु महोत्सव है । कर्मका नाश ही मृत्यु- महोत्सव है । हर्षशोक करने जैसा नहीं है । द्रष्टा बनकर देखा करें । श्रद्धा मान्यता तो यही रखें। सद्गुरु, प्रत्यक्ष पुरुष, सहजात्मस्वरूप परमगुरु ज्ञानदर्शनमय श्रीमद् राजचंद्र वे ही गुरु हैं जी । ॐ शांतिः शांतिः शांतिः
श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे. अगास, कार्तिक वदी ११, गुरु, १९८३
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१. कल्याण परंपरारूप फल देनेवाले कल्पवृक्षके समान जो धर्मका अनादर करता है ऐसा मूर्ख पुरुष वास्तवमें हाथमें आये हुए दुर्लभ चिंतामणिको तृणके समान वृथा फेंक देता है ।
२. जो नीच पुरुष धर्मको छोड़कर सुखके लिये विषयोंका सेवन करता है, वह जीनेकी आशासे अमृतको छोड़कर कालकूट विष खाता है !
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