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उपदेशामृत ९७
श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास
ज्येष्ठ सुदी ८, मंगल, १९८३ ऐसे दुषम कालमें समभाव परिणामसे प्रवृत्ति करना बहुत दुर्लभ है। जीवात्माओंकी प्रकृतियाँ भिन्न-भिन्न प्रवर्तनवाली देखकर खेद होता है। इस कालमें समभावी जीवात्मा बहुत थोड़े दिखाई देते हैं, तो अब क्या करें? कहाँ किसीको कुछ कहने जैसा रहा है? कहने जाते हैं तो उसे खेदजनक होता है। यह अच्छी तरह जानते हैं कि सत्पुरुषका सनातन जैन मार्ग सद्विवेक-विनयपूर्वक प्रवृत्ति करनेका उपदेश देता है, पर वह इस कालमें अत्यंत शिथिल, प्रमादी, स्वच्छंदी प्रवर्तनयुक्त दिखाई देता है। कोई भिन्न स्वरूपमें मुमुक्षु और भिन्न स्वरूपमें मुनि आदि देखकर विचार आता है, ऐसे वचन सद्गुरुने कहे हैं। अतः हमें तो अब जहाँकहीं भी क्षेत्र स्पर्शनानुसार काल व्यतीत करना है। साता-असाता तो पूर्वके उदयानुसार जैसी सर्जित होगी वैसी आयेगी। आपको कुछ भी कहने जैसा नहीं है। आपने देवाधिदेव कृपालुदेवकी सेवा की है। आपका कल्याण होगा। आप पवित्र है, उत्तम हैं।
श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास
भाद्रपद वदी ३, बुध, १९८३ जन्मांध या आँखों पर पट्टी बाँधकर कोई कहे कि मुझे सूर्यके दर्शन करने हैं, तो यह संभव नहीं है। अनार्य भूमि और ऐसे संयोगोंमें अपनी कल्पनासे मान लिया हो कि यह सत्य है, तो यदि वह सत्य हो तो भी सत्य नहीं है। सद्गुरुके योग बिना की गई कल्पनाएँ मिथ्या हैं। अपनी मान्यताके कारण सत्य समझमें नहीं आता । त्याग-वैराग्यके बिना और योग्यताकी कमी हो तब तक आत्माका भान नहीं होता।
"त्याग विराग न चित्तमां, थाय न तेने ज्ञान." तीन-चार वर्ष जानकारी करनेमें बिताये तब कुछ पता लगता है। वीतराग मार्ग बहुत गंभीर है, वेदांतका इसके आगे क्या हिसाब? श्वासोच्छ्वास आदि साधन कुछ कामके नहीं है, कल्पना है। सब मान्यताएँ कैसे छूटेगी?
९९ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, ता.२०-१०-२७ किसी न किसी दिन देहका नाश होना ही है। किन्तु आत्माका नाश नहीं है। पूर्वकालमें पराधीनतासे नरकके दुःख भोगनेवाला यही जीव था। वही जीव आज किसी सद्गुरुके वचनामृत ध्यानमें लेकर श्रद्धासे बिलकुल सत्य मानकर, सत्संगसे मान्य कर इस देहको छोड़े तो फिर चिंता नहीं। दुःख तो जायेगा ही, पर जीव नहीं जायेगा। समझकर सहन करेगा तो अनंत भव नष्ट होंगेसम्यक्त्वका आराधनकर जन्म-मरणका नाशकर मुक्त होगा। अतः शमभाव, समता कर्तव्य है जी। ___ मृत्युका भय कर्तव्य नहीं है। जीव क्षण क्षण मर रहा है जी। एक सद्भावकी भावना कर्तव्य है जी। जीवको परभावमें जाते रोककर स्मरणमें लगायें। परको भूल जायें । “आतम भावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे।” दुःख, सुख दोनों ही बंधन हैं। श्रद्धा रखें, प्रतीति रखें । सद्गुरु,
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