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________________ पत्रावलि - १ ५९ चित्तवृत्तिका पर्यायदृष्टिमें परिणमन होनेसे बंधन होता है । उस वृत्तिको रोककर आत्मभाव - ज्ञानीकी दृष्टिसे, जिसने देखा है, जाना है, अनुभव किया है, वह भाव उनकी आज्ञासे मान्य करना उचित है । "शुद्धता विचारे ध्यावे, शुद्धतामें केलि करे, शुद्धतामें स्थिर व्है, अमृतधारा बरसे." 'आतमभावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे." "उष्ण उदक जेवो रे आ संसार छे, मां एक तत्त्व मोटुं रे समजण सार छे." उस आत्माको ज्ञानीने ज्ञानीकी दृष्टिसे देखा है । उस भावकी परिणति मनमें, चित्तमें, भावमें कर्तव्य है जी । ✰✰ ९० Jain Education International श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे. अगास, चैत्र वदी १२, सोम, १९८२ ऐसी छोटी उम्र में जीवकी देह छूट जाती है । अतः इसका विश्वास न कर हमें भी यथाशक्य त्याग-वैराग्यकी भावना कर विशेष जागृति कर आत्महितकी ओर जुड़ना कर्तव्य है जी । स्वजनकुटुंब, पुत्र-पुत्री आदि अपने-अपने पूर्वपुण्य द्वारा जो प्राप्त हुआ हो, तदनुसार सुख-दुःख भोग सकते हैं | अपना सोचा हुआ कुछ भी होता नहीं अतः जैसे भी हो धर्माराधनके लिये - परमार्थके लिये इस देहको बिताना उचित है । ऐसा योग बार बार मिलना दुर्लभ है । कोई किसीका हुआ नहीं है । अतः सम भावसे अपने अपने बँधे हुए कर्म भोग लेना चाहिये, किन्तु किसी भी जीवके प्रति इच्छा, मोह, तृष्णा करना उचित नहीं । निर्भय रहना चाहिये । किसी प्रकारका भय रखना योग्य नहीं। सत्संग, संत तथा सत्पुरुषके प्रत्यक्ष वचनामृतका योग मिला है और यह श्रद्धा यदि इस मनुष्यभवमें दृढ़ हो जाय तो जीवका कल्याण, सफलता समझनी चाहिये । मनुष्यभव भी अनंतबार मिला, संयोग-वियोग अनंत बार हुए, जन्म-मरण हुए, त्रिविध तापके असह्य दुःख सहे, पर जीवको शांति नहीं मिली। अब इस भवमें वास्तविक योग मिला है, उसका लाभ उठानेसे चूकें नहीं । जो जीव संसारकी मोहमायामें फँसे हैं, वे जीव दुःखी हुए हैं, किन्तु निकटभवी जीव इस अवसरमें जाग्रत होकर सफलता प्राप्त कर लेते हैं । चेतने जैसा है । आप समझदार हैं। किसी बातका खेद करनेवाले नहीं है । पूर्वके संयोगोंसे क्षयोपशम अच्छा है, उसे संसारकी मायामें न गँवा देवें । चेतने जैसा अवसर मिला है । काल सिरपर घूम रहा है, लिया या लेगा यों हो रहा है । यह जीव किस कालकी प्रतीक्षा कर रहा है यह विचारणीय है । अनेक जीवोंने मनुष्यभवको प्राप्तकर आत्माका कल्याण कर लिया है, यों जानकर पूर्वके उदय, व्यवसाय, प्रारब्ध जो हैं उन्हें समभावसे भोगकर, क्षमा धारण कर, आत्महितके लिये पुरुषार्थ करना चाहिये । होनहार बदलेगा नहीं और जो बदलनेवाला है वह होगा नहीं । अतः सत्पुरुषार्थ कर्तव्य है । जिणवणे अणुरत्ता गुरुवयणं जे करंति भावेण । असबल असंकिलिट्ठा ते होंति परित्तसंसारा ॥ (मूला०२, ७२ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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