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________________ ६० उपदेशामृत जो आत्मा जिन भगवानके प्रवचनमें अनुरक्त है, गुरु-आप्त पुरुषके वचनामृतमें जिसके भाव रहते हैं, जो मिथ्यात्वसे रहित है (सम्यक् परिणामी है) और जिसके परिणाम संक्लेशवाले नहीं होते वह परीतसंसारी है-समीप मुक्तिगामी है, अर्थात् सम्यक्त्वको प्राप्तकर मुक्त होता है। "तीन भुवन चूडा रतन, सम श्री जिनके पाय ।। नमत पाइये आप पद, सब विधि बंध नशाय ॥"-श्री टोडरमल "आस्रवभाव अभावतें, भये स्वभाव स्वरूप। नमो सहज आनंदमय, अचलित अमल अनूप ।।"-श्री टोडरमल "सहु साधन बंधन थया, रह्यो न कोई उपाय । सत्साधन समज्यो नहीं, त्यां बंधन शुं जाय ?"-श्रीमद् राजचंद्र इस जीवको बोधकी बहुत आवश्यकता है। बोध समकित प्राप्त करवाता है। अतः इस जीवका भी जैसे हित हो वैसी दया अंतरमें लाकर, यह मनुष्यदेहका योग मिला है तो सावधान हो जाना चाहिये। ऐसी अनुकूलता बार बार नहीं मिलती। यद्यपि जीवको अनंतबार पौद्गलिक सुख मिला है, उसे प्राप्त करनेकी इच्छासे प्रवृत्ति की है, पर उससे सुख नहीं मिला । अतः अपने हितका चिंतन करें। विशेष क्या लिखें? चित्तवृत्ति उदयकर्माधीन होनेसे, लिखनेकी इच्छा थी पर लिखा नहीं गया। वृद्धावस्था है, साता-असाताके उदयका वेदन समभावसे करते हैं, हो रहा है। शमभाव, समाधि, क्षमा, समता । शांतिः शांतिः "पावे नहि गुरुगम बिना, एही अनादि स्थित." निर्भय होनेकी आवश्यकता है। जब तक जीवको विश्रांति नहीं मिली, तब तक बोधकी अवश्य आवश्यकता है। "जं संमंति पासहा तं मोणंति पासहा; जं मोणंति पासहा तं संमंति पासहा." सम्यक्त्व अपूर्व वस्तु है जी। यही कर्तव्य है जी-तभी सफलता है जी। * * श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास श्रावण सुदी ८, मंगल, १९८२ "जिस विद्यासे उपशम गुण प्रगट नहीं हुआ, विवेक नहीं आया या समाधि नहीं हुई, उस विद्याके लिये उत्तम जीवको आग्रह करना योग्य नहीं।"-श्रीमद् राजचंद्र उद्धतपनसे, अपनी मतिकल्पनासे अर्थात् स्वच्छंदसे किसी पदार्थका निर्णय करना योग्य नहीं है। ऐसा ज्ञानीपुरुषोंने जाना है, तीर्थंकर आदिने कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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