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________________ ५८ उपदेशामृत दर्शन, चारित्र ही आत्मा है। भक्ति करें, आधा घंटे वाचन-चिंतनमें वृत्ति रोकें-मनमें अर्थका विचार करें। प्रमाद छोड़कर तत्त्वज्ञानमेंसे कुछ कण्ठस्थ करें। "आतम भावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे, जीव लहे केवलज्ञान रे." जीव! तू क्यों चिंता करता है! ___ "नहि बनवानुं नहि बने, बनवू व्यर्थ न थाय; कां ए औषध न पीजिये, जेथी चिंता जाय?" त्रिविध तापसे सारा लोक जल रहा है। काल सिरपर घूम रहा है, लिया या लेगा। यह जीव किस कालकी प्रतीक्षा कर रहा है? क्षण क्षण मृत्युको याद करें, कालका कुछ भरोसा नहीं है। १"उष्ण उदक जेवो रे आ संसार छ, तेमां एक तत्त्व मोटु रे समजण सार छे." तत्त्व अर्थात् आत्मा है जी। मोह-ममत्व कम करें। तृष्णा न करें। "क्या इच्छत ? खोवत सबै, है इच्छा दुःखमूल; जब इच्छाका नाश तब, मिटे अनादि भूल." आत्मभावसे प्रणाम। अहंकार न करें। दुःख आवे तो सहन करें। मनमें बुरे बुरे विचार उठते हों तब मनको स्मरणमंत्रमें लगा दें। मनको रोककर अन्य वाचन-चिंतनमें मनको लगावें। यथाशक्ति मनको परमात्मा परमकृपालुदेवमें संलग्न करें तथा उनके लिखे हुए वचनामृतका अध्ययन करें। मनुष्यभवमें धर्मध्यानका चिंतन करें। आत्माका चिंतन करें। आत्मा है, नित्य है, कर्ता है, भोक्ता है, मोक्ष है, मोक्षका उपाय है। यह छह पदका पत्र पढ़ें, विचारें। आत्मसिद्धि कण्ठस्थ करें। कुछ संकल्पविकल्प न करें। ज्ञानी तीर्थंकर भगवानने आत्माको जाना है वैसा ही वह है, वह मुझे मान्य है। मुझे तो उन्होंने जो आज्ञा दी है, वैसा ही करना चाहिये । स्वच्छंदको रोकें । आणाए धम्मो-आज्ञा ही धर्म है जी। शांतिः शांतिः ८९ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास, सं.१९८२ विशेष विनतीके साथ आपश्रीको बतानेकी सूचना यह है कि प्रथम, समागममें आपको बहुत बार कहा गया है वह आपकी जानकारीमें है ही, फिर भी भूल न हो इसलिये यहाँ लिखना है कि श्रीमद् सद्गुरु देवाधिदेवकी आज्ञासे भावकी परिणतिके साथ वाचन-चिंतन कर्तव्य है जी। इसमें भूल न हो यह ध्यानमें रखेंगे जी। __ आपने पत्रमें जो लिखा है उसमें आप आज्ञाका भाव थोड़ा हम पर रख रहे हैं, उसकी अपेक्षा, सद्गुरुकी आज्ञासे अब सूचित करते हैं कि उनकी प्रतीति पूर्वक हमें वाचन-चिंतन करना चाहिये। वैसे हमारा अभिप्राय यह है कि उनकी आज्ञापूर्वक हमारे कहनेसे उन पर प्रतीति करनेसे कल्याण, आत्महित होगा। हमें तो ऐसा लगता है। उनकी आज्ञामें ध्यान देना योग्य है। १. यह संसार उष्ण उदक (गर्म पानी)की तरह उबल रहा है-उसमें लेशमात्र भी शांति नहीं है। उसमें साररूप एक तत्त्व है और वह है समझ-सम्यक्दर्शन। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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