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________________ पत्रावलि-१ ८८ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे.अगास ता.२४-४-२६ जिणवयणे अणुरत्ता गुरुवयणं जे करंति भावेण । असबल असंकिलिट्ठा ते होंति परित्तसंसारा ॥ (मूला०२, ७२) इस श्लोकका मूल परमार्थ आत्मामें विचार करनेसे सम्यक्त्व सुलभतासे प्राप्त होता है, अनंत भवके पाप नष्ट होते हैं और अनंत महा पुण्यानुबंधी पुण्यका उदय होता है। इस उपरोक्त गाथामें जो परमार्थ है, उस परम अर्थको यदि भव्यजीव आत्मामें धारण करेगा तो वह अनंत भवोंके कर्मोंको नष्ट कर परमपदकी अर्थात् मोक्षपदकी प्राप्ति कर सकेगा अर्थात् मोक्षको प्राप्त होगा। ऐसा अपूर्व अर्थ है! अतः बारंबार मनन कीजियेगा। इस गाथाका संक्षेप परमार्थ नीचे मुताबिक है 'जिणवयणे' अर्थात् रागद्वेष अज्ञान रहित जिन परमात्मा, केवलज्ञानमय परमज्योति परमात्माके वचनोंके प्रति अर्थात् उनके उपदेशमें जो जीव 'अणुरत्ता' अर्थात् मन-वचन-कायाके योगसे आत्माके परिणाम अनुरंजित करेंगे अर्थात् आत्माके परिणामकी तल्लीनता करेंगे, वे भव्य जीव उस पुरुषके पदको प्राप्त करेंगे, अर्थात् सर्वज्ञपदको प्राप्त होंगे। और 'गुरुवयणं जे करंति भावेण' अर्थात् परमगुरु निग्रंथ अर्थात् मिथ्यात्व और मोहरूपी ग्रंथिरहित ऐसे सद्गुरुके वचन अर्थात् उपदेशके अनुसार जो आत्माकी भावना करेंगे, अनित्य-अशरण-एकत्व आदि भावनाएँ गुरुके वचनानुसार सद्गुरुके बोधसे समझकर जो वैसी भावना करेंगे वे सम्यक्त्वको प्राप्त करेंगे। सम्यक्त्व प्राप्त कर, सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी आराधना कर अनंत भवोंके कर्मोंका नाश कर अल्पसंसारी बनेंगे, अर्थात् मोक्षके निकट पहुंचेंगे। इस क्षणिक संसारमें हमें मनुष्यभव महापुण्यसे प्राप्त हुआ है, उसमें जो बुद्धिबल प्राप्त किया है उससे सम्यक्त्व आदिका अपूर्व लाभ प्राप्त करना योग्य है। मनुष्यत्व आदिकी सामग्रीसे, अनंतभवसे जो वस्तु प्राप्त नहीं हुई है उसे प्राप्त करनेमें ही वास्तविक विचक्षणता मानी जायेगी। शरीरनिर्वाहके लिये धनकी प्राप्ति सभी कर रहे हैं। अधिकांश जीव इसी कार्यमें प्रवृत्ति कर रहे हैं, परंतु उस धनकी प्राप्ति तो पुण्यका उदय हो तो होती है। वह पुण्य सद्गुरुकी आज्ञानुसार चलनेसे होता है। __ चार प्रकारके जो पुरुषार्थ कहे हैं उनमेंसे धर्म और मोक्षके लिये कुछ विरले जीव ही प्रयत्न करते होंगे। आत्माका सच्चा सुख-वास्तविक शांति तो धर्म और मोक्षमें ही है। अतः आपके यहाँ सत्संगका योग न हो तो निवृत्तिके समय सत्शास्त्रका वाचन कीजियेगा। आपके पास अभी जो पुस्तकें हों उनमेंसे वाचन-चिंतन कीजियेगा और बृहद् 'वचनामृत' या अन्य किसी पुस्तककी इच्छा हो तो लीखियेगा। "ज्ञान ध्यान वैराग्यमय, उत्तम जहां विचार; ए भावे शुभ भावना, ते ऊतरे भव पार." शमभाव, समता, क्षमा, दया, धैर्य, क्रोध न करना, गम खाना, आत्मभावना करना। ज्ञान, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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