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________________ ५६ उपदेशामृत अब अन्य नहीं होना है। क्या लिखूँ ? इस विषयमें पूर्ण शांति है जी । आप हमारे हृदयरूप है इसलिये विदित करता हूँ जी । ८५ ता. २३-५-२५ 1 आप आत्महित हो वैसी पुस्तकका वाचन- चिंतन करते होंगे । न करते हों तो अबसे सोचें, ध्यानमें लें । सत्संग कर्तव्य है जी । प्रमादको छोड़कर सत्पुरुषार्थ कर्तव्य है जी। स्वच्छंदको रोककर पुरुषार्थ करनेकी ज्ञानी पुरुषोंने, तीर्थंकरोंने आज्ञा दी है जी । यदि जीव उसका आराधन परमार्थके लिये, आत्माके लिये करेगा तो कल्याण होगा। अपनी कल्पनासे और स्वच्छंदसे त्रिकालमें भी कल्याण नहीं हुआ है, और होगा भी नहीं ऐसा समझमें आया है जी । काल कराल, दुषम है। कोई विरला जीव ही उस दृष्टिमें, भाव-परिणाममें लगेगा। शुद्ध भावना तो उस ज्ञानीपुरुषकी है । घड़ीभर भी छुट्टा छोड़ने जैसा नहीं है । जीव स्वयंको भूल गया है, अतः ज्ञानी गुरुकी आज्ञा है कि जागृत हो जाओ ! जागृत हो जाओ ! अन्यथा रत्नचिंतामणि जैसा मनुष्यभव निष्फल जायेगा । मृत्युको क्षणक्षण याद करें। शांतिः शांतिः शांतिः स्टे. 3 अगास ता. १-८-२५ यह जीव अनादिकालसे मिथ्यात्वमें फँसा हुआ है । इस स्वप्नवत् संसारमें एक समकित सार है जी। यह सम्यक्त्व दुर्लभ है जी । जीवको चेतने जैसा है जी । पूर्वप्रारब्धसे जीव उदयाधीन प्रवृत्ति करता है। उसमें पुरुषार्थ कर्तव्य है जी । यह पुरुषार्थ सत्संगके योग बिना समझमें नहीं आ सकता, समझमें नहीं आता। अपनी मति - कल्पनासे धर्म माना है, इस विषयमें यथावसर समागममें समझना होगा । ८६ Jain Education International ★★ ८७ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, शास्त्रमें पंथकजी विनीतका विनय पर दृष्टांत है । अपने गुरु शीलंगाचार्य प्रमादके वशीभूत थे, फिर भी पंथकजीने, विनय करना चाहिये ऐसा जानकर, विनयको नहीं छोड़ा। अतः चाहे जैसे, बड़े गुरु महान हो, उनके प्रति विनय करते देहत्याग हो जाय अथवा परिषह - उपसर्ग आ पड़ें तो भी उन्हें किसी प्रकारका खेद न हो वैसा करते हुए शिष्यको समताभावसे सहन करना चाहिये। इस जीवने जन्म, जरा, नरकादि गतिमें परिभ्रमण करते हुए पराधीनतावश कैसे दुःख सहन किये हैं! तो इस मनुष्यभवमें बड़े महात्माकी सेवामें काल व्यतीत हो - विनय करते हुए समय बीते - यह तो आत्माके लिये सार्थक है । किन्तु जीव इसका विचार न करते हुए स्वच्छंद या अपनी कल्पनाबुद्धिसे प्रवृत्ति कर रहा है ! 1 For Private & Personal Use Only श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे. अगास ता.६-१२-२५, रवि www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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