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________________ ५२ उपदेशामृत ७७ पूना, आश्विन सुदी ७, रवि, १९८० जैसे आत्महित हो वैसे वाचन-चिंतन कर्तव्य है जी। 'श्रीमद् राजचंद्र' बृहद् ग्रंथ है उसमेंसे पक्षपात-रहित आत्मार्थ-आत्माका कल्याण-हो वैसी व्याख्याके पत्र पढ़ने, विचारनेका आपश्रीसे अनुरोध हैजी। यद्यपि उसमें गुरुगमकी आवश्यकता अनिवार्य है, पर वह नहीं होनेसे, आपकी समझ आत्महितमें हो ऐसे, त्याग-वैराग्य विशेष बढ़े ऐसे भावसे ध्यानमें लीजियेगा। सर्व शास्त्रोंके कथनका परमार्थ यही है कि आत्महित करना है; और वह इस ग्रंथमें समाहित है। यद्यपि इसका वाचन-श्रवण सत्समागममें विशेष हितकारी होता है, तथापि धैर्यसे निवृत्ति लेकर, एकांतमें वृत्तिको बाहर भटकती रोककर पढियेगा, विचारियेगा। उसमें बताई हुई बोधबीजकी समझ या उसका अर्थ समझमें न आये तो उसे पढ़कर पूछने जैसा लगे तो पत्र द्वारा सूचित करें। यदि यहाँसे पत्र द्वारा सूचित करने योग्य होगा तो पत्रसे सूचित करेंगे और यदि सत्समागममें समझने योग्य होगा तो वह हरीच्छानुसार बताया जायेगा जी। बहुत करके मताग्रही, मतमतांतरके आग्रहवाले हों उनके समागममें वाचन-विचार न करें। परंतु जो आत्मार्थी मुमुक्षुभाई सत्पुरुषकी दृष्टि सन्मुख इच्छावाले हों उनके साथ मिलकर वाचन करेंगे तो आत्महितका कारण होगा। अपनी समझके संकल्प-विकल्प छोड़कर एकमात्र आत्मार्थक लिये ही कथित वचनों पर श्रद्धा रखकर विचार कीजियेगा। मतमतांतर, पक्ष अनेक हो गये हैं उन पर दृष्टि न डालकर यहाँ लिखे अनुसार विचारमें ध्यान लगाकर लक्ष्य करेंगे तो उस संगका फल अवश्य मिले बिना नहीं रहेगा। काल कराल है, आयुष्य क्षणभंगुर है। अतः प्रमाद छोड़कर आत्माके लिये जो कुछ समय बीतेगा वह कल्याणकारी है, लाभदायक है। स्वार्थके लिये आशा-तृष्णा सहित तो अनेक बार किया है, पर ज्ञानियोंने उसे मिथ्या वृथा कहा है। अतः स्वच्छंदको रोककर सत्पुरुषार्थके लिये, आत्मार्थमें जीवन बीते वही हितकारी है। धैर्यसे बारंबार वचनामृत पढ़कर, पुनः पुनः दो-तीन बार ध्यानमें लें और मनन करें, लौकिक दृष्टिसे निकाल न दें। उन वचनोंका अलौकिक माहात्म्य समझकर, समझमें न आये तो भी प्रतीति रखकर विचार कीजियेगा। ७८ पूना, आश्विन सुदी १४, शनि, १९८० वृद्धावस्थाके कारण शरीर नरम गरम रहता है। साता-असाता वेदनीयके उदयके समय समभावसे सद्गुरु-शरण लेनेसे काल व्यतीत होता है जी। इसी प्रकार सभी जीवोंको उदयकर्म समभावसे सहन करने योग्य है। वेदनीयके उदयके समय विक्षेप, अरति या रति देहादिके संबंधमें करना योग्य नहीं है। बारंबार सहजात्मस्वरूप परमगुरु देवको स्मृतिमें लाकर समय व्यतीत करें। संतके समागममें सुनी हुई शिक्षा तथा मंत्रका ध्यान चिंतनमें लायें। मनको अन्यत्र जाते रोककर वृत्ति उपयोगमें (आत्मामें), मंत्रमें लगावें । रति-अरति करनेसे आर्तध्यान-रौद्रध्यान होकर तिर्यंच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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