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________________ पत्रावलि-१ मुनि श्री मोहनलालजीसे अनुरोध है कि आपने देवाधिदेव परमकृपालुदेवके जो जो वचन मुख द्वारा सुने हैं, उन्हें यादकर उनकी आज्ञामें लीन होंगे। फिर हमें जो जो आज्ञा उन परमकृपालुदेवने की है वह आज्ञा मुझे भी हो, ऐसी भावना भी रखनी चाहिये । परमकृपालुदेवने जीवात्माकी कर्मप्रकृति कुशल वैद्यकी भाँति देखकर जिसे जो आज्ञा छोटी बड़ी दी है, उसे उसी आज्ञाका पालन तन-मनसे करना चाहिये । भविष्यमें उसे इसी भवमें या परभवमें बड़ी आज्ञा अवश्य वैसे ज्ञानीसे या उसी ज्ञानीसे मिल जायेगी। घबरायें नहीं। आपने तो उनका प्रत्यक्ष बोध सुना है जी। अतः प्रत्यक्ष वचनामृतमेंसे पढ़कर या पढ़वाकर, याद कर समय व्यतीत करेंगेजी। सद्विचार कर्तव्य है जी। उनके कहे हुए वचनामृतको भी प्रत्यक्ष समझेंगेजी। भविष्यमें सब अच्छा होगा। इसीके लिये शरीरको लगाना कर्तव्य है जी। सदा ही, जो जाता है वह रहता नहीं है। जो है वह तो है ही। ७५ पूना, भाद्रपद वदी ७, शनि, १९८० आत्माके लिये ही हमें आपको जीना है जी, वहाँ अब कुछ आकुल होने जैसा नहीं है, परम आनंदसे समय व्यतीत करना है जी। स्वप्नवत् मिथ्या संसारमें अनंत काल बीता वैसे अब नहीं जाने देना है, एक सद्गुरु देवाधिदेव प्रत्यक्ष आत्माकी आज्ञामें सब कुछ समाया है जी, उसीमें जीवन बिताकर चले जाना है जी। ७६ पूना, ता.१-१०-१९२४ आश्विन सुदी ४, गुरु, १९८० जीजी बापाकी इच्छा दर्शन करनेकी रहती है, वह आत्माको हितकारी है, पर उन्हें कहें कि दर्शन करनेकी अपेक्षा जो दर्शन करनेकी भावना है वह आत्माको विशेष कल्याणकारी है। यथाशक्य शांति भावसे 'सहजात्मस्वरूप परमगुरु' मंत्रका जाप करते रहें। मनमें इसीकी स्मृति बार बार लायें और देवाधिदेव परमकृपालुदेवके चित्रपटके सन्मुख दृष्टि रखें। उनके दर्शन कर मंत्रमें उपयोग रखनेका अनुरोध है जी। इसीमें आपका कल्याण है। साता-असाता वेदनी है वह कालक्रमसे स्वतः चली जायेगी। आत्मा नित्य है जी। समभाव रखें, अकुलाकर शोक न करें। अनेक भद्रिक जीवात्माओंने समता, क्षमा रखकर सद्गुरु-कथित मंत्रकी आज्ञामें चित्तको लगाकर दुःखको सहन किया है। आत्मा ज्ञान-दर्शन-चारित्रमय है, वह यथातथ्य जानता है, देखता है, स्थिर है, जैसा है वैसा ही है, वही स्वरूप मेरा है जी। उदयकर्मके संयोगसे देहादिके कारण वेदनी है, उसे ज्ञानी सत्पुरुषने स्पष्ट भिन्न जाना है। वे सत्पुरुष-ज्ञानी समभावसे मुक्त हुए हैं। अतः मुझे उनकी शरण, आराधना करनी चाहिये। इससे, इस देहके कारण जो वेदनी है, उसका नाश होता है जी । देहके नाशके साथ वेदनीय कर्मका भी नाश है जी। मेरा उसमें कुछ नहीं है। घबरायें नहीं। परभावके संकल्प-विकल्प न करें। सब भूल जायें। मनमें एक चित्तसे बारंबार मंत्रका स्मरण करें। सद्गुरु मेरे पास ही हैं, मेरे हृदयमें बसे हुए हैं जी। अन्य जो भी है वह पर है, मेरा है ही नहीं, ऐसा ध्यानमें रखें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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