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________________ उपदेशामृत "प्रथम आत्मसिद्धि थवा, करिये ज्ञान-विचार; अनुभवी गुरुने सेविये, बुध जननो निर्धार." ७२ श्रीमद राजचंद्र आश्रम, स्टे.अगास __ ज्येष्ठ वदी १३, मंगल, १९७९ अरेरे! क्या कहें ? जो कुछ इस कालमें सबसे पहले ही करना चाहिये उसीमें विलंब हो रहा है? कैसी कुदरत है जी! ७३ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे.अगास अषाढ़ वदी ३, बुध, १९७९ इस संसारमें महामायाको दुष्करतासे तैरकर आत्महित करना ही सारभूत है। बाकी रागद्वेष करना योग्य नहीं है। यथाशक्य आत्महितका पुरुषार्थ करना चाहिये। परमकृपालु देवाधिदेव, उनकी आज्ञा पर दृष्टि प्रेरित कर आत्महित कर्तव्य है। आप तो समझदार हैं, किसी प्रकारका विकल्प न करें। हमारा भाव समदृष्टि रखनेका है, अंतरमें है वह गुरुकृपासे मिटेगा नहीं। अपनेअपने आत्मार्थके लिये पुरुषार्थ कर, आत्मार्थ साधकर कर्मबंधनसे छूटनेका अवसर आया है। दुर्लभमें दुर्लभ मनुष्यभव है। अपना दोष स्वयंको कभी दिखाई नहीं दिया। वचनामृतमेंसे परमकृपालु देवके वचन यादकर, पत्र पढ़कर, उन दोषोंको दूर करना है ऐसा हमारे अंतरंगमें रहता है। किसीका किसीके साथ संबंध नहीं है; जीव अकेला आया है, अकेला जायेगा और अपने द्वारा बाँधे गये कर्म स्वयं भोगेगा, इसमें किसीका दोष देखने जैसा नहीं है, ऐसा हमारे हृदयमें है। आप समझदार हैं। जैसे आत्महित हो वैसे करियेगा। “वित्तजा, तनुजा, मानसी, आज्ञा सेवा चार; सेव्य सेववा कारणे, सेवा चार प्रकार." ७४ पूना, भाद्रपद वदी ७, शनि, १९८० आपको जो परमकृपालु देवाधिदेव कथित मंत्राक्षर बताया गया है उसका स्मरण जीवन पर्यंत हर घड़ी करते रहें और साता-असाताके उदयकालको समभावसे देखते रहें। आत्मा द्रष्टा है, ऐसा मानकर समय व्यतीत करना चाहिये। इस देहको परमार्थमें अर्थात् आत्माके लिये ही बिताना है, यही हमें और आपको हो। वेदनी वेदनीका समय पूरा होने पर जायेगी। आपको अभी जो दुःख है, वह बादमें फिर सुख दिखाई देना संभव है जी। ज्ञानी उसे समपरिणामसे भोगता है जी। इसमें किसीकी शक्ति नहीं चलती, यह तो परीक्षा है। जो आया है वह जायेगा, आत्मा तो सदा रहेगा। वह भिन्न है, ऐसा सोचकर वाचन, श्रवण, चिंतन करियेगा। आपको शांति हो यह हमारी आशीर्वादपूर्वक भावना है जी, वह सफल हो! यह संसार स्वप्नके समान है जी। समय बीतने पर सब जानेवाला है जी। एक धर्म, आत्माके लिये इस देहसे जो हो सके, वही सार्थक है जी। ऐसा योग बार बार मिलना दुर्लभ है जी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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