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________________ ४९ पत्रावलि - १ आदि राग, द्वेष, अज्ञान, मूल धर्मसे दूर करनेवाला मिथ्यात्व है, उससे मुक्त होना चाहिये, असंग अप्रतिबद्ध बनना चाहिये। सत्पुरुषकी दृष्टिसहित प्रत्यक्ष वचनसे हृदयमें श्रद्धा कर, मान कर, जो प्रारब्ध उदयमें आवे उसे समभावसे भोगते हुए, चित्तमें रति- अरति न लाकर, विभाववृत्ति संकल्पविकल्पको मनमें आनेसे रोककर, जो सत्पुरुषका बोध 'सहजात्मस्वरूप' है उसके प्रति भाव, परमगुरु (ज्ञान-दर्शन- चारित्र) के प्रति प्रेम, चित्तप्रसन्नता प्राप्त करनेके लिये उपयोग रखकर अर्थात् एक शब्दका उच्चारण वचनसे करके, मनसे विचार करके, पुद्गलानंदी सुखको भूलकर, आत्मानंदी सुखकी लहरें - खुमारी प्राप्त हो ऐसे आनंदके अनुभवके लिये पुरुषार्थ करना चाहिये । जागृत हो, जागृत हो, प्रमादका त्यागकर जागृत हो । कुछ विचार कर । काल सिर पर खड़ा है, प्राण लिये या लेगा ऐसा हो रहा है । हे जीव ! अब तू किस कालकी प्रतीक्षामें है ? यह सोचकर तुझे निःसंगभावके प्रति आना चाहिये, उसमें प्रवर्तन करना योग्य है । "आतमभावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे, " जीव लहे केवलज्ञान रे. ( जीवको ) निकम्मा नहीं छोड़ना चाहिये । परभावमेंसे यथाशक्ति स्वभावमें आ सके, उन उन निमित्तों-कारणोंमें वृत्तिको जोड़ियेगा । वृत्ति क्षण क्षण डिग जाती है । अतः प्रत्यक्ष पुरुषके वचनामृत आदि पुस्तकमें संलग्न होवें । इतना भव आत्माके लिये देहको लगायेंगे तो अनंत भवोंसे छुटकारा हो जायेगा, उसे लक्ष्यमें, ध्यानमें रखकर, उदयके प्रति शत्रुभाव रखकर, दाढ़में रखकर, ध्यानमें रखकर, अवसर आनेपर मार डालें, स्नातक-सूतक क्रियाकर्म निबटाकर चले जायें, छूट जायें । यही सत्पुरुषकी सूचना है । निःस्पृहतासे, आत्मार्थ और स्वपर हितके लिये, आत्मासे विचारकर आपको यह लेख लिखा है । हृदयमें सद्गुरुके वचन आये हैं, वे ही लिखे गये हैं, अतः वे अवश्य लक्ष्यमें रखने योग्य हैं, विचारणीय हैं, वारंवार विचारणीय हैं । यदि निःस्वार्थतासे इतनी मात्र एक आत्माकी सँभाल रखेंगे तो उस संगका फल अवश्य मिलेगा, यह नि:संदेह है । क्या कहें? ‘कहे बिना बने न कछु, जो कहिये तो लज्जइये ।' सत्संग बलवान है । “जहां कलपना - जलपना, तहां मानूं दुःख छांय; मिटे कलपना - जलपना, तब वस्तु तिन पाय." "क्या इच्छत ? खोवत सबै, है इच्छा दुःखमूल; जब इच्छाका नाश तब, मिटे अनादि भूल. " ✰ ४ Jain Education International ✰ ✩ "जेम जेम मति अल्पता, अने मोह - उद्योत; तेम तेम भव- शंकना, अपात्र अंतर ज्योत. " ✰ ✩ ✰ "विषय-विकार सहित जे, रह्या मतिना योग; परिणामनी विषमता, तेने योग अयोग. मंद विषय ने सरळता, सह आज्ञा सुविचार; करुणा, कोमळतादि गुण, प्रथम भूमिका धार.' "" ✩ ✰ ✰ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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