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________________ ४८ *. xo उपदेशामृत रही है? ये प्रश्न विशेषकर विचारणीय हैं, अंतरंगमें उतरकर चिंतन करने योग्य हैं। जब तक उस क्षेत्रमें स्थिति रहती है, तब तक चित्तको अधिक दृढ़ रखकर प्रवृत्ति करें। वचनामृत आत्मार्थी मुमुक्षु भाइयोंके लिये परम कल्याणकारी है जी। श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे.अगास ता.६-१२-२२ भद्रिक सरलस्वभावी जीवात्मा सोमचंदभाईके देहत्यागसे स्वार्थवश शोक न कर सोचना चाहिये कि मनुष्यभव दुर्लभ है। ऐसे मनुष्यभवको प्राप्त कर यदि यह जीव, अनंतकालचक्रसे परिभ्रमण करते हुए जो प्राप्त नहीं हुआ, वैसा सम्यक्त्व प्राप्त करे अथवा सच्चे सद्गुरुदेवके प्रति उसे श्रद्धा हो जाय तो इस मनुष्यभवकी सफलता माननी चाहिये । यद्यपि उपाधि तो कर्मवश सब जीवात्माओंके उदयमें है, उसे भोगनी ही पड़ती है, कोई सुख-दुःख लेने अथवा देने में समर्थ नहीं है, पर यदि एक यथातथ्य सत् श्रद्धान हो जाय तो इस मनुष्यभवका मूल्य किसी भी प्रकार नहीं हो सकता और वह सब कर चुका है ऐसा समझना योग्य है। ऐसा योग यहाँ मिला है। इस क्षणभंगुर देहका त्याग होता है ऐसा दिखाई देता है, और फिर स्वजन-बंधुमें वैसा होते प्रत्यक्ष देखते हैं ऐसा जानकर, समभाव रखकर धर्ममें चित्तको लगावें । यही कर्तव्य है। होनहार हो रहा है, भावी होकर रहेगा। किसीके हाथमें कुछ नहीं है। इस कालमें दुर्लभमें दुर्लभ सत्संग है। "जिण वयणे अणुरत्ता, गुरुवयणं जे करंति भावेण । असबल-असंकिलिट्ठा, ते होंति परित्तसंसारा ॥" (मूलाचार २,७२) श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे.अगास पौष वदी७, १९७९ +"जम्मं दुक्खं, जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणि य। अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसन्ति जंतयो॥" (उत्तराध्ययन १६, १५) "जरा जाव न पीडेई, वाही जाव न वड्डई। जार्विदिया न हायंति, ताव धम्मं समायरे ॥" (दशवकालिक ८,३६) भव्य जीवात्माओंके प्रति सर्व तीर्थंकर आदि ज्ञानियोंने ऐसा कहा है-“जब तक जरा अर्थात् वृद्धावस्था नहीं आती, पीड़ा अर्थात् रोगादि वेदनी नहीं आती और इंद्रियाँ क्षीण नहीं हुई है, तब तक तुम अपने निजस्वभाव-मूल धर्मको संभाल लो।" ऐसा है, तो हे प्रभु! इस जीवको सोचना चाहिये कि मायादेवीका प्रबल राज्य चल रहा है। वह मोहादिरूप है। जो संयोगादि बाह्य परिग्रह शरीरसे लेकर धन आदि और आभ्यंतर परिग्रह क्रोध + जन्मे दुःख, जरा दुःख, व्याधि मृत्यु दुःख महा! सारा संसार दुःखी वहाँ, जीव क्लेशित सर्व हा!! ७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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