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________________ पत्रावलि-१ गति होती है जी। अतः प्रमाद छोड़कर सदैव जागृत रहें। सत्पुरुषार्थ कर्तव्य है। उससे देवादि उच्च गति और मोक्ष प्राप्त होता है जी। ७९ पूना, कार्तिक सुदी १४, सोम, १९८१ आज आपके हस्ताक्षरसे लिखा हुआ एक पत्र मिला। उससे दो दिनकी अति भयंकर, खेदजनक, आकस्मिक बीमारीसे पू.भगवानभाईका इस संसारसे क्षणिक देहके त्याग होनेके समाचार जानकर अत्यंत खेद हुआ है जी। वह जीवात्मा सच्चे सिपाही जैसे सरल, भाविक, भद्रिक थे। उनका समागम जिस जीवात्माको हुआ होगा, उसे भी खेद होगा ही; तो पूर्वके संयोग-संबंधसंस्कारसे उनके सहवासमें रहे हुए सगे, कुटुंबी, भाई तथा पुत्रादि वर्गको खेद हो और बुरा लगे तो इसमें आश्चर्य नहीं है। परंतु असार और अशरणरूप परवश स्थितिवाला यह संसार है यह सोचकर खेद नहीं करनेका आपसे अनुरोध है जी। इस मनुष्यभवसे धर्माराधन हो सकता है, उस योगकाइस मनुष्यदेहका-उस जीवात्माको वियोग हुआ है, इस योगके वियोग होनेका खेद कर्तव्य है। पू. भगवानभाईका छोटी उम्रमें देहावसान हो गया। यदि वह शरीर रहता तो अभी कुछ आत्माका आराधन इस अपूर्व योगसे होता । पर यह देहका छूटना तो अंतरायकर्मसे हुआ है। इसमें किसीका जोर नहीं चलता। संसार महादुःखदायी है जी। काल सिर पर खड़ा है। लिया या लेगा ऐसा हो रहा है। फिर भी इस जीवसे अभी तक कुछ भी हुआ नहीं। इस स्वप्नवत् संसारमें कुछ सार नहीं है, संसार स्वार्थी है जी। इसमें यह मनुष्यजन्म मिलना दुर्लभ है। इसमें भी इस जीवको अपूर्व जोगसे धर्माराधन करना बहुत दुर्लभ है जी । खेद करनेसे आर्तध्यान होकर कर्मबंध होता है जी, ऐसा जानकर धर्मध्यानमें चित्त लगाइयेगा। सभी अपनोंको, कुटुंबियोंको धैर्य दिलाकर शोक दूर हो वैसा कीजियेगा। ८० पूना, मार्गशीर्ष सुदी ९, रवि, १९८१ इस औदारिक शरीरसे जिसका संबंध है, उस राजा या रंक सबको वेदनीयके उदयके समय साता या असाता भोगनी पड़ती है। कुछ ज्ञानीपुरुष उसे समतासे, समभावसे भोगते हैं। वह वेदना वेदनीय कालके समाप्त होनेपर क्षय हो जाती है। उसमें खेद नहीं करना चाहिये। आर्त्त-रौद्रध्यान करनेसे तो कर्मबंधकी वृद्धि होती है, समभावसे कर्म भोगनेसे निर्जरा होती है, ऐसा ज्ञानीपुरुषोंने जाना है जी। "यथार्थमें देखें तो शरीर ही वेदनाकी मूर्ति है" इस पत्र नं.९२७ से परमकृपालु देवाधिदेवने भाविक आत्माओंको सूचित कर जागृत किया है जी। आत्माके सिवाय सर्व परवस्तुसे मुक्त ऐसे आत्मापर दृष्टि प्रेरित की है, यही ध्यानमें रखनेका अनुरोध है। अन्य सब कर्म हैं, उससे भिन्न हैं। शरीर संबंध कर्मसे आत्मा मुक्त है जी। उसके द्रष्टा बनकर 'सहजात्मस्वरूप में भावना और वृत्ति करें। x4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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