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________________ ३८ उपदेशामृत १“निज पण जे भूले नहीं, फूले न बनी सिरदार; ते मूल्ये नहि पामीए, जे अमूल्य आधार. १ २ सेवाथी सद्गुरुकृपा, (सद्गुरु कृपाथी ज्ञान; ज्ञान हिमालय सब गळे, शेषे स्वरूप निर्वाण. २ ए संकलना सिद्धिनी, कही संक्षेपे साव; । विस्तारे सुविचारतां, प्रगटे परम प्रभाव. ३" ४"जिन स्वरूप थई जिन आराधे, ते सही जिनवर होवे रे; भुंगी इलिकाने चटकावे, ते भुंगी जग जोवे रे." ५"जेम निर्मलता रे रत्न स्फटिक तणी, तेमज जीवस्वभाव; ते जिन वीरे रे धर्म प्रकाशियो, प्रबल कषाय अभाव." ६"इणविध परखी मन विसरामी, जिनवर गुण जे गावे रे; दीनबंधुनी महेर नजरथी, आनंदघन पद पावे रे." सनावद,सं.१९७६ तत् ॐ सत् "सहजात्मस्वरूप चिंतवियो धरियो रहे, और अचिंतित होय; प्रबल जोर भावी तणो, जाणी शके नहि कोय. १ बंदाके मन ओर है, कर्ताके मन ओर; ओधवसे माधव कहे, जूठी मनकी दोड. २ प्रभुपद दृढ मन राखीने. करवो सौ व्यवहार: विरति विवेक वधारीने, तरवो आ संसार. ३ जेने सद्गुरुपदशुं राग, तेनां जाणो पूर्विक भाग्य; जेने सद्गुरुस्वरूपशुं प्यार, तेने जाणो अल्प संसार. ४ १. जो अपनी प्रतिज्ञाको भूलते नहीं है और महत्ता पाकर गर्वसे नहीं इतराते, ऐसे व्यक्ति पैसा खर्चनेसे नहीं मिलते। वे अमल्य आधाररूप हैं। २. ऐसे सदगरुकी सेवा (उपासना) करनेसे सदगरुकी कृपा प्राप्त होती है, सद्गुरुकृपासे ज्ञान मिलता है, ज्ञानरूपी हिमालयसे सब कर्म पिघलकर अवशेष केवल आत्मस्वरूप प्रगट होकर निर्वाणकी प्राप्ति होती है। ३. यह सिद्धिकी संकलना एकदम संक्षेपमें कही है। इसका विस्तारपूर्वक सुविचार करनेसे परम प्रभाव प्रगट होता है। ४. जो प्राणी जिनेश्वरके स्वरूपको लक्ष्यमें रखकर तदाकार वृत्तिसे जिनेश्वरकी आराधना करता है-ध्यान करता है वह निश्चयसे जिनवर केवलदर्शनी हो जाता है। जैसे भौंरी कीड़ेको मिट्टीके घरमें बंद कर देती है, फिर उसे चटकाने-डंक मारनेसे वह कीड़ा भौंरी होकर बाहर आता है जिसे जगत देखता है। तात्पर्य यह है कि श्रद्धा, निष्ठा एवं भावनासे जीव इष्टसिद्धि प्राप्त कर लेता है। ५. अर्थ देखे पृष्ठ २२ ६. इस प्रकार परीक्षा करके अठारह दोर्षोंसे रहित देख करके मनको विश्राम देनेवाले जिनवरका जो गुणगान करता है, वह दीनबंधुकी कृपादृष्टिसे आनंदघनपद-मोक्ष पाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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