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________________ पत्रावलि-१ ३९ अनन्य शरण प्रदाता सद्गुरुदेव भगवानको अनन्य भक्तिसे त्रिकाल नमस्कार हो! नमस्कार हो! शुद्ध चैतन्यस्वामी प्रकट पुरुषोत्तमको त्रिकाल नमस्कार हो! नमस्कार हो! आप भाइयोंसे विनती है कि जैसे भी हो सके वैसे त्याग, वैराग्य, भक्ति, भजन सब भाईबहन एकत्रित होकर करियेगा। जन्म, जरा, मरण, व्याधि, पीड़ा त्रिविध तापसे संपूर्ण लोक जल रहा है। संसार स्वप्नके समान है जी, उसमें कुछ सार नहीं है। मात्र यह जीव पूर्वबद्ध कर्मोंको भोगता है जी। उसमें फिर रागद्वेष कर वापस कर्मबंध न हो वैसा करना चाहिये जी । जीवको तृष्णा है वह दुःखदायक है जी। उससे कम-अधिक नहीं हो सकता। पूर्व पुण्यके उदयसे जो साता-असाता, लाभ-हानि दिखाई देती है, वे अपने नहीं होते। जीव कल्पना कर बंधन करता है। अतः जीवको समभाव रखकर समतासे शांतभाव हो वैसा करना चाहिये जी। खेद करने जैसा कुछ नहीं है जी। मुमुक्षु जीजीभाई आदि सबसे यही अनुरोध है जी। जैसे भी आत्महित हो वैसे करना चाहिये जी। खेद करने जैसा कुछ नहीं है जी। अमूल्य मनुष्यभव फिर मिलना दुर्लभ है, इसमें एक धर्म ही सार है, शेष सब मिथ्या है। होनहार बदलता नहीं और जो बदलता है वह होनहार नहीं। धैर्य रखकर समता भावसे समाधिमरण हो वैसे दिन-प्रतिदिन चिंतन रखियेगा। दोहा- 'धीरे धीरे रावतां, धीरे सब कुछ होय; माली सींचे सो गणा, ऋतु विण फल नव होय. गई वस्तु शोचे नहीं, आगम वांछा नो'य; वर्तमान वर्ते सदा, सो ज्ञानी जगमांय. २क्षमासूर अरिहंत प्रभु, क्षमा आदि अवधार, क्षमा धर्म आराधवा, क्षमा करो सुखकार. साचे मन सेवा करे, जाचे नहीं लगार; राचे नहि संसारमां, माचे निजपद सार. प्रभु सर्व व्यापी रह्या, छे तुम हृदय मोझार; ते प्रत्यक्ष अनुभवी, पामो भवनो पार. "पूर्व पुण्यना उदयथी, मळ्यो सद्गुरुयोग; वचनसुधा श्रवणे जतां, थयुं हृदय गतशोग. निश्चय एथी आवियो, टळशे अहीं उताप; नित्य कर्यो सत्संग में, एक लक्षथी आप." सहजात्मस्वरूप १. कोई भी कार्य धीरजसे यथाकाल होता है-उतावल करनेसे नहीं होता। माली सौ गुना पानी सींच ले-पौधेको बहुत पानी पिला दे, तो भी ऋतु आये बिना फल नहीं आयेगा। २. अरिहंत प्रभु क्षमारूपी शस्त्रसे वीर है, दशलक्षण धर्ममें क्षमा धर्म आदि (प्रथम) कहा है। क्षमाधर्मकी आराधना करनेके लिये दूसरोके अपराधोंको क्षमा करो जो सुखदायक है। ३. जो सच्चे मनसे प्रभुकी सेवा करते हैं, उसके प्रतिफलकी अंशमात्र इच्छा नहीं रखते और संसारमें आसक्त नहीं होते वे साररूप निजपदका आनन्द उठाते हैं। ४. प्रभु सर्वव्यापी है तुम्हारे हृदयमें भी रहे हुए हैं। उसका प्रत्यक्ष अनुभवकर संसारसागरसे पार हो जाओ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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