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________________ ३२ उपदेशामृत समझता है जी। समझना यही है कि बँधा हुआ छूटता है जी-स्वयंको घबराहट हो यही भय है जी। इस भयसे मुक्त हुआ जा सकता है। कलियुग, कलिकाल! तालपुट विष, विष और विष यह संसार है जी। उसमें चिंतामणिके समान मनुष्यभव है, अनंत जन्ममरण करने पर यह भव मिला है। इसमें सद्गुरुकी पहचान होनेसे, उनकी आज्ञाका आराधन करनेसे मुक्त हुआ जा सकता है। जीव सब कुछ कर चुका है। क्या नहीं किया? यह सोचें। १"प्रभुपणे प्रभु ओळखी रे, अमल विमल गुणगेह, जिनवर पूजो; साध्यदृष्टि साधकपणे रे, वंदे धन्य नर तेह. जिनवर पूजो; एक वार प्रभु वंदना रे, आगम रीते थाय, जिनवर पूजो; कारण सत्ये कार्यनी रे, सिद्धि प्रतीत कराय. जिनवर पूजो; जन्म कृतारथ तेहनो रे, दिवस सफळ पण तास; जिनवर पूजो; जगत शरण जिनचरणने रे, वंदे धरीय उल्लास. जिनवर पूजो." २"धर्म रंग जीरण नहीं, साहेलडिया, देह ते जीरण थाय रे गुणवेलडिया; सोनुं ते विणसे नहीं, साहेलडिया, घाट घडामण जाय रे गुणवेलडिया; तांबुं जे रसवेधियु, साहेलडिया, ते होय जाचं हेम रे गुणवेलडिया; फरी तांबुं ते नवि हुये, साहेलडिया, एहवो जगगुरु प्रेम रे गुणवेलडिया." ४९ __सनावद,सं.१९७६ जीवको शोक नहीं करना चाहिये। प्रमादको छोड़कर जो कुछ हो सके वह कण्ठस्थ करना चाहिये । आलस्य शत्रु है। निवृत्ति निकालकर भक्तिभजन करना चाहिये । संसारसमुद्र इंद्रजाल जैसा है, स्वप्नवत् नाशवान है। कालचक्र सिर पर घूम रहा है। प्राण लिये या लेगा ऐसा हो रहा है। इसमें इस क्लेशित जीवात्माको एक धर्मकी शरण है, गति है। यह जीव कैसे योग-कालकी प्रतीक्षा कर रहा है? यह देखकर आत्माकी दया आती है। इस मनुष्यभवमें पुरुषार्थ कर्तव्य है। कोई किसीका नहीं है, फिर भी जीव परभावमें आसक्त हो रहा है। मैं और मेरा, देहादिसे लेकर सबमें मेरा मेरा कर रहा है। जो अपना है उसे जीवने अनादिकालसे जाना नहीं है, ऐसा समझकर, समझा तभीसे सबेरा, भूले वहींसे वापस गिनते हुए एक आत्महित-कल्याण हो वैसा करना चाहिये । जीवको इस विषयमें अवश्य ध्यान रखना चाहिये । होनहार मिटनेवाला नहीं है और जो नहीं होनेवाला है वह होगा नहीं, अतः सावधान रहना चाहिये। सहजात्मस्वरूपका स्मरण, ध्यान, विचार करना चाहिये जी। जो समय बीत रहा है वह वापस आनेवाला नहीं है। परभावका चिंतन, कल्पनासे जीव भ्रममें पड़कर कर्मबंध करता है, यह व्यर्थ छिलके कूटने जैसा है। जो-जो संयोग १. भावार्थ-अमल विमल और गुणधामरूप प्रभुके स्वरूपको मूल स्वरूपसे पहचानकर साध्यदृष्टिसे साधकके रूपमें प्रभुकी वंदना करे उस जीवको धन्य है। आगमोक्त (शास्त्रोक्त) रीतिसे अगर एक बार भी प्रभुकी वंदना की जाय तो वह जीव अवश्य सिद्धिको प्राप्त होगा, क्योंकि सत्य कारणको ग्रहण करनेसे उत्तम कार्यकी सिद्धि अवश्य होगी। उसी व्यक्तिका जन्म कृतार्थ है, दिन भी सफल है जो जगतके शरणरूप जिनचरणको उल्लास धारण कर वंदना करता है। २. भावार्थक लिये देखे पृष्ठ २९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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