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________________ पत्रावलि-१ ३३ मिलनेवाला है, वह मिलकर अंतमें छूटनेवाला है। वह कुछ अपना हुआ नहीं, फिर भी कल्पनाकर जीव भूलता है, यों सोचकर मन या वृत्तिको परभावमें जाते हुए रोककर, बारबार स्मृतिमें, आत्मोपयोगमें लाना योग्य है जी। “सर्वव्यापक सच्चिदानंदके समान मैं एक आत्मा हूँ ऐसा सोचें, ध्यान करें।" 'सहजात्मस्वरूप'का वचनसे उच्चार, मनसे विचार ऊपर लिखे अनुसार ध्यानमें रखकर लक्ष्यमें लेना योग्य है जी। 'सहजात्मस्वरूप' बंधे हुएको छुड़ाना है जी। पुराना छोड़े बिना छुटकारा नहीं है। किसी-न-किसी दिन छोड़ना ही पड़ेगा । जबसे यह वचन सुना है तबसे अंतरंगमें त्याग-वैराग्य लाकर, सुखदुःखमें समभाव रखकर, चित्तमें शांतिसे विचारकर, समाधिभाव हो वैसे करना चाहिये जी। सब भूल जायें। एक आत्मउपयोगमें रात दिन रहें। अर्थात् 'आत्मा' है। जब द्रष्टामें दृष्टि पड़ती है तब बंधा हुआ छूटता है। उसमें हर्ष शोक करने जैसा नहीं है जी। शांतिः शांतिः शांतिः पुनश्च-उपरोक्त वचन पर विचारकर ध्यानमें लेनेका लक्ष्य रखना योग्य है जी। __"मात्र दृष्टिकी भूल है, भूल गये गत एह ।" ६० ता.६-१०-२०,सं.१९७६ आत्मभावनापूर्वक जागृति रखनी चाहिये। देहादि संबंध, रागद्वेष, व्याधि, उपाधि, संकल्पविकल्प, पूर्वोपार्जित-संचित प्रारब्ध, अध्यवसाय, जो-जो जाननेमें आता है, उसका द्रष्टा, देहसे भिन्न आत्मा असंग है, सबसे भिन्न है। बंधे हुए संयोग छूटते हैं जी। साक्षी है उसे यथातथ्य भिन्न आत्मा जानें। समभाव, समाधि, शांतिमें आत्मा है जी। वह परभाव-विभावके संयोगसे जुड़ा हुआ है। उससे मुक्त होना है अर्थात् छूटना है। अपना मूल स्वरूप कभी नहीं छूटता, यह सोचकर समभाव रखियेगा। जो होनहार है वह बदलेगा नहीं और जो बदलनेवाला है वह होगा नहीं। ज्ञानीपुरुष देहादि संयोगसे लेकर साता-असाता जो उदयमें आता है, उसे देखकर उससे भिन्न अविषमभावसे, अर्थात् उस दृश्यसे उल्टे, अपनेको द्रष्टा मानकर आनंद शांतिमें संतोष मानकर धैर्य रखकर अपने स्वरूपमें लीन होते हैं जी। जीवने अनादिकालसे जिसे सुख मान रखा था वह मिथ्या है, ऐसा सोचकर समभावसे भोगकर मृत्यु आनेपर भी महोत्सव मानते हैं। ___ अब चिंता करने जैसा कुछ नहीं है। जो जा रहा है उसे जाने दें, सदैव आनंदमें रहें जी। यद्यपि ऐसा ही होता आ रहा है, पर समझमें फेर है। इस समझको बदल देना पड़ेगा । जो मानना चाहिये वह तो माना नहीं और जिसे नहीं मानना चाहिये उसे माना है। गिनना चाहिये उसे गिना नहीं और जिसे नहीं गिनना चाहिये उसे गिन लिया है। यही भूल है। अब तो इतना भव जो सर्वथा मेरा माना है उसे छोड़कर, सत्पुरुषने जिस आत्माको यथातथ्य देखा है, जाना है, अनुभव किया है वही आत्मा मेरा है, उसीके लिये इस देहको बिताना है। उसे ढूँढनेसे, उसीको माननेसे, उसीके व्यापारसे, उसी पर श्रद्धा करनेसे, उसी पर रुचि करनेसे आत्मकल्याण है। ऐसा समझकर उसी भावना-पुरुषार्थ भावना से प्रवृत्ति करना सो आत्मकल्याण है जी। इसके लिये जो जो उदयमें आकर जाता है, उसे देखते रहना है। Jain Educa3 ernational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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