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________________ पत्रावलि-१ पक्षपातरहित प्रत्यक्ष श्रीमद् सद्गुरुके वचनामृतोंका विचारकर, श्रद्धा रुचि सहित अंतरवृत्तिप्रधान होकर हमें जो पुरुषार्थ करना है उसका स्वरूप सत्संग-सत्समागममें यथातथ्य समझना चाहिये। उसमें प्रमाद और स्वच्छंदको शत्रु समझना चाहिये। शेष तो, जगतमें अन्य प्राणीमात्र मित्र हैं। यदि कोई दुःख देता है तो उतना ऋण उतरता है। सम्यक्दृष्टिवानको तो असाता आदि वेदनीय कर्मका उदय भी ऋणसे मुक्त होनेका कारण होता है जी। सम्यक्दृष्टि जीव मृत्युको भी महोत्सव मानकर, जगतके जीवों द्वारा उपद्रव करने पर भी उल्टेसे सुल्टा करते हुए आत्मानंदको यथातथ्य समझकर आत्मानंदी हुए हैं, हो रहे हैं और होंगे। ___ अहोहो! यह मार्ग कैसा सुलभ है, सरल है, सुगम है, स्वाभाविक है! उसे अपनी तराजूपर तौलकर कैसी भूल करता है, यह जीवकी समझमें नहीं आता। यह जीव धोखे ही धोखेमें रहकर, धर्मके निमित्त तीर्थयात्रामें धन खर्च करता है, पर जहाँ आत्माका पोषण हो ऐसे निमित्तोंपर जीव कल्पनासे संकुचित वृत्तिवाला होता है, यह वृत्तिकी ठगाई है यह ध्यानमें नहीं आता। इस जीवको एक काम करना है, वह भी न हो सका तो फिर क्या कहें ? ___ ये वचन सहज भावसे, निःस्पृहतासे, निःस्वार्थभावसे, आत्मवृत्तिसे, एक आत्मार्थका विचारकर, जाँचकर कहे हैं यह आपको विदित हो । ★ ★ ४७ सनावद, प्र. श्रावण सुदी १०, मंगल, १९७६ इस स्वप्नवत् संसारमें जगतको नाशवान जानकर कुछ भी इच्छा न रखते हुए एक आत्माके लिये देहको बिताना है। आत्मभावकी इच्छा रखकर, पूर्व प्रारब्ध-शुभ-अशुभ, साता-असाता-को समभावसे क्षमासहित भोग लेना चाहिये । सब जीवोंके प्रति समभाव-धैर्य रखकर, कोई क्या कहता है उस ओर न देखकर, जो-जो काम करना हो वे समभावसे सबको समझाकर करें। यह जगत प्रकृतिके अधीन है, राग, द्वेष और अज्ञानसे बंध ही करता है। पर आत्माके हितके लिये हमें वैसा नहीं बनना है। विनय वशीकरणसे देवगति होती है। अतः परमार्थ अर्थात् आत्माके लिये करता हूँ, पर मुझे मेरा करना है ऐसा नहीं होना चाहिये । 'मैं, मेरा' तो करना ही नहीं चाहिये। इतनी बात मानोगे तो संगका फल मिलेगा। फिर यथावसर सब अच्छा होगा जी। * * ४८ सनावद, ता.३-९-२० जितनी शीघ्रता उतना ही धीमा कार्य। धैर्य रखना चाहिये। जो करना है उसे यथातथ्य समझने पर ही कल्याण है, ऐसा समझमें आया है जी। वह सत्संग सद्बोधसे समझमें आता है जी। वैसी भावनामें वृत्ति रखकर प्रवृत्ति करना योग्य है जी। जीवको पहले श्रद्धा-सद्गुरुधर्मकी श्रद्धा, समझकर उनकी आज्ञासे चलना चाहिये । आज्ञा ही धर्म और आज्ञा ही तप है जी। स्वच्छंद और प्रमाद जीवके विशेष शत्रु हैं। इससे जीव भूल करता है जी। अपनी मतिकल्पनासे, अपने तराजू पर, अपने बाटोंसे तोलता है जी। किन्तु यह मिथ्या है यह समझमें नहीं आया है। कोई शत्रु सिर काट ले या दुःख दे तो वहाँ कर्मऋणसे मुक्ति होती है जी। मृत्यु भी महोत्सव है! सम्यक्दृष्टि तो उल्टेको सुल्टा कर आत्मानंदमें मग्न रहता है जी। पुद्गलानंदी जीव उल्टा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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