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उपदेशामृत तांबु जे रसवेधियु, साहेलडिया, ते होय जाचुं हेम रे गुणवेलडिया,
फरी तांबुंते नवि हुये, साहेलडिया, एहवो जगगुरु प्रेम रे गुणवेलडिया." १“प्रगटे अध्यातम दशा रे लाल, व्यक्त गुणी गुणग्राम रे व्हालेसर;
आत्मसिद्धि कारज भणी रे लाल, सहज नियामक हेतु रे व्हालेसर.
नामादिक जिनराजनां रे लाल, भवसागरमांहे सेतु रे व्हालेसर." झूठा खाता, स्वप्न समान संसार, कलिकाल, दुषम-दुषम, जहर जहर और जहर, इसमें महान पुण्यवान जीवात्मा तो स्वयं अपना करनेके लिये आत्मासे आत्माको पहचानकर समभाव-भावनाका तथा निज स्वरूप-समाधिका अनुभवलाभ विचारकर, विचारमें आकर, पुद्गलानंदीपनेसे अनादिकालसे होनेवाली भूलको सत्समागमसे भ्रम समझकर, आत्मानंदकी पहचान होनेके लिये तथा विश्रांति प्राप्त होनेके लिये कुछ बोधका योग प्राप्त करके यह चिंतामणि जैसा मनुष्यभव सफल करने योग्य है जी।
'एगं जाणइ से सव्वं जाणइ' यह बहुत ही विचार करने पर प्राप्त होता है। अन्य अनंत साधन अनंत बार किये किन्तु मोक्ष नहीं हुआ, ऐसा सर्व ज्ञानीपुरुषोंने कहा है, हमें तो यह यथातथ्य समझमें आ गया है। आपका भी यह समझनेसे ही छुटकारा है जी। जिससे राग, द्वेष, क्रोध, मोह आदिसे सहज ही छूटा जा सकता है। जप तप आदि सर्व साधन कर चुका है और अंतर्मुहूर्तमें मोक्ष प्राप्त होता है, यह भी विचारणीय है जी। क्या इस कथन पर ध्यान नहीं देंगे? सर्वथा गफलतमें जाने देंगे? लिखना तो था पर अवसर नहीं मिला। शांतिः शांतिः शांतिः
.. ४६ सनावद, प्र. श्रावण वदी ३, बुध, १९७६ "इच्छा और द्वेषसे रहित, सर्वत्र समदृष्टिसे देखनेवाले पुरुष, भगवानकी भक्तिसे युक्त होकर भागवती गतिको प्राप्त हुए, अर्थात् निर्वाणको प्राप्त हुए।"
यह संसार तालपुट विष जैसा है, विष, विष और विष । २“पवनसे भटकी कोयल' जैसा यह मनुष्यभव है। अनंत भवोंमें परिभ्रमण तो हुआ, पर जीव इस देहको केवल आत्माके लिये बिताये तो अनंत भवोंकी कसर निकल जाये, ऐसी श्रीमद् सद्गुरु भगवानकी शिक्षा है। इसका विशेष रूपसे आराधन करने जैसा है। अनंत जन्म-मरण कर चुका है। प्राण लिये या लेगा यों हो रहा है, तब यह जीव किस कालकी प्रतीक्षामें है? यह विचारणीय है। शुद्ध स्वर्ण हो जाता है, वह फिर ताँबा नहीं हो सकता; उसी प्रकार जगगुरु भगवानसे यथार्थ प्रीति होनेसे यह जीव उन्हींकी दशाको प्राप्त हो जाता है-वह फिर संसारी नहीं हो सकता।
१. भावार्थ-व्यक्तगुणी (जिसके आत्मगुण प्रगट हुए हैं ऐसे) भगवानके गुणगानसे इस जीवकी अध्यात्मदशा प्रगट होती है। अपनी आत्मसिद्धिके लिये भगवान अचूक कारण है। संसारसमुद्रसे पार पानेके लिये जिनभगवानके नाम आदि सेतुके समान अवलंबनरूप हैं।
२. 'वानी मारी कोयल' मूल गुजराती पाठ है। उसका अर्थ ऐसा है कि वा-हवाके धक्केसे (मारी=मारसे) कोयल जंगलसे शहरमें आ गई हो उसी तरह कोई प्रबल पुण्यके योगसे अचानक ही मनुष्यभव मिल गया है।
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