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पत्रावलि-१ विचारकर, अब ऐसा न होने देनेके लिये सत्संग समागममें समय बीते ऐसी वृत्ति रखनी चाहिये।
फिर आपकी वृत्ति सत्समागम दर्शनार्थ है वह कर्तव्य है जी। क्योंकि संसारव्यवसायके कार्य तो किसीके पूरे हुए नहीं है। परमकृपालुदेवने कहा है-"जिंदगी छोटी है और जंजाल लंबा है; इसलिये जंजाल कम कर, तो सुखरूपसे जिंदगी लंबी लगेगी।" इस पर विचारकर हमें जिससे आत्महित हो वैसा करना चाहिये।
हम तो तीनों पर्युषण पर्व मनाना कर्तव्य समझते हैं, क्योंकि हमारे श्रीमद् सद्गुरु भगवानकी समभाव, वीतरागताकी उपासना करनेकी शिक्षा शिरोधार्य करके, मतांतरसे उत्पन्न पर्युषण पर्वके दिन भले ही पृथक् पृथक् माने जाते हों, पर हमें तो अहोनिश श्वासोच्छ्वासमें वीतरागताका, वीतराग भावनाका अभ्यास करना है-उपासना करनी है। उसके निमित्तभूत ये पर्व यथाशक्ति आराधन करने हैं।
४५ सनावद, प्र.श्रावण सुदी १४, १९७६ सत्समागमसे सत्पर्वमें-महोत्सवमें, निमित्त मिल जानेसे धर्मवृत्ति वर्धमान होती है। स्वामिवात्सल्य आदि महिमासे अनेक जीवात्माको श्रद्धा-सम्यक्त्वका लाभ मिले ऐसे निमित्त कारण करने, कराने और अनुमोदन करनेवालेको बड़ा पुण्यानुबंधी पुण्यका बंध होकर मुक्ति प्राप्त होती है जी। पुष्ट अवलंबनसे श्रद्धान-सम्यक्त्वको पोषण मिलता हैजी। विशेष समागमसे समझमें आयेगा। पत्रसे नहीं लिखा जा सकता। “जिंदगी छोटी है और जंजाल लंबा है; इसलिये जंजाल कम कर, तो सुखरूपसे जिंदगी लंबी लगेगी।" बोधसे यह समझ अंतरंगमें होती है, यह सत्य है जी।
+"खामेमि सव्व जीवा, सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्व भूएसु, वेरं मझं न केणइ ॥" वीतरागता सूचक आ, वीतराग महा पर्व वीतरागता कारणे, आराधो निर्गर्व. क्षमाशूर अर्हत् प्रभु, क्षमा आदि अवधार;
क्षमा धर्म आराधवा, क्षमा करो सुखकार. चित्तको चैन न होनेसे तथा शरीरप्रकृति नरम होनेसे पत्र नहीं लिखा गया और अन्य किन्हीं मुमुक्षुभाइयोंके पत्र आये, उनका भी उत्तर नहीं लिखा गया। अतः इस पत्रसे जैसे आत्महित हो वैसे वाचन-चिंतन द्वारा लक्ष्य रखेंगे जी।
३"धर्मरंग जीरण नहीं, साहेलडिया, देह ते जीरण थाय रे गुणवेलडिया;
सोनुं ते विणसे नहीं, साहेलडिया, घाट घडामण जाय रे गुणवेलडिया. ___+ अर्थ-मैं सब जीवोंसे क्षमा माँगता हूँ। सब जीव मुझे क्षमा करें। मुझे सब जीवोंसे मैत्रीभाव हो, किसीसे मुझे वैरभाव न हो। १. इस वीतरागतासूचक वीतराग महापर्वकी वीतरागताकी प्राप्तिके लिए गर्वरहित होकर उपासना करो। २. अर्हत् प्रभु क्षमाशूर है-क्षमा करनेमें शूरवीर है। दशलक्षण धर्ममें क्षमाधर्म आदि (प्रथम) है। क्षमाधर्मकी आराधनाके लिए सबसे क्षमायाचना करनी चाहिए जो सुखका मूल है, कारण है।
३. अर्थ-धर्मका रंग कभी जीर्ण नहीं होता, देह जरूर जीर्ण होता है। जैसे कि स्वर्णक आभूषणके आकारमें परिवर्तन होता है परंतु स्वर्णका नाश नहीं होता। जिस प्रकार ताँबेको स्वर्णरसका स्पर्श होनेसे वह
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