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________________ उपदेशामृत ४३ सनावद, अषाढ़ सुदी १०, १९७६ प्रमादको छोड़कर यथाशक्ति जो कुछ कण्ठस्थ या अध्ययन हो सके वह करना चाहिये जी। अथवा निवृत्ति लेकर भक्ति-भजन करना चाहिये जी। आलस्य शत्रु है जी। संसारसमुद्र इंद्रजाल जैसा, स्वप्न समान नाशवान है। कालचक्र सिरपर घूम रहा है। प्राण लिये या लेगा ऐसा हो रहा है। वहाँ इस क्लेशित जीवात्माको एक धर्मकी शरण है जी। फिर भी यह जीव किस योग और कालकी प्रतीक्षा करता है इसपर विचारकर आत्मा पर दया करनेका अवसर इस मनुष्यभवको मानकर पुरुषार्थ कर्तव्य है जी। कोई किसीका नहीं है, फिर भी जीव परभावमें आसक्त हो रहा है। "मैं" और "मेरा" देहादिसे लेकर सबमें 'मेरा मेरा' कर रहा है, किन्तु जो वास्तवमें अपना है उसे जीवने अनादि कालसे जाना नहीं है यों सोचकर, जबसे समझा तबसे सबेरा, जहाँसे भूले वहींसे फिर गिनकर एकमात्र आत्महित-कल्याण हो वह कर्तव्य है; जीवको उसकी सँभाल अवश्य करनी चाहिये जी। जो होनहार है वह बदलेगा नहीं और जो बदलनेवाला है वह होगा नहीं। अतः सावधान रहना चाहिये। सहजात्मस्वरूपका स्मरण, ध्यान, विचार कर्तव्य है जी। जो समय बीत रहा है, वह वापस आनेवाला नहीं है। परभावका चिंतन, कल्पना कर जीव भ्रममें पड़कर कर्मबंध करता है। वह व्यर्थ छिलके कूटने जैसा है। जो-जो संयोग मिलनेवाला है, वह मिलकर अंतमें छूटनेवाला है। अपना हुआ नहीं है, फिर भी जीव कल्पना कर भूलता है, यह सोचकर मन या वृत्तिको परभावमें जाते रोककर बारबार स्मृतिमें, आत्मोपयोगमें लाना उचित है जी। सर्वव्यापक सत्-चित्-आनंद ऐसा मैं एक हूँ। ऐसा विचार करें, ध्यान करें, वचनसे सहजात्मस्वरूपका उच्चारण करें-बोलें, मनसे विचार करें। उपरोक्त कथनानुसार ध्यानमें रखकर लक्ष्य रखना योग्य है जीसहजात्मस्वरूप । बँधे हुएको छुड़वाना है जी। पुराना छोड़े बिना छुटकारा नहीं है। किसी न किसी दिन उसे छोड़ना ही पड़ेगा। जबसे यह वचन सुना तबसे अंतरमें त्याग-वैराग्य लाकर, सुखदुःखमें समभाव रखकर, चित्तमें शांतिसे विचारकर, समाधिभाव प्राप्त हो वैसे कर्तव्य है जी। सब भूल जायें। आत्मा है। अतः एक आत्मोपयोगमें रातदिन रहें। जहाँ दृष्टि द्रष्टामें पड़ती है, वहाँ कर्म आते हैं तो जानेकी शर्त पर । बंधा हुआ छूटता है, उसमें हर्ष-शोक करने जैसा है ही नहीं जी। शांतिः शांतिः शांति । पुनश्च-उपरोक्त वचनपर विचारकर ध्यानमें रखने योग्य है जी। "मात्र दृष्टिकी भूल है, भूल गये गत एह ।" ४४ सनावद, प्र. श्रावण सुदी १३, शुक्र, १९७६ वृद्धावस्थाके कारण शरीर क्षीण होता जा रहा है। शुभ-अशुभ, साता-असाता वेदनीय कर्मक उदयमें आत्मामें समभाव रखकर वीतराग भावनासे प्रवृत्ति करें, ऐसी आज्ञा श्रीमद् सद्गुरु भगवानकी है, उसका यथाशक्ति आराधन करना चाहिये जी। इस विचारसे शांति रहती है जी। आपके पत्रसे गोरजी लाधाभाईका देहोत्सर्ग हुआ जानकर उसे खेदजनक विचारकर भी आत्महित हो वैसा करना चाहिये । वर्तमानमें कलिकाल चल रहा है जी। प्राण लिये या लेगा ऐसा हो रहा है, फिर भी जीव किस कालकी प्रतीक्षा कर रहा है, इसपर विचारकर आत्मकल्याण हो ऐसे कालकी प्रतीक्षा करनी चाहिये। अनादिसे परभाव, प्रमाद, स्वच्छंदमें काल गँवाया है, उसपर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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