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________________ पत्रावलि-१ २७ चिंतनके लिये नीचे मुताबिक नोंध करता हूँ जी। पत्र १२५, ४१४, ४८७, ४९४ आदि से ध्यानसमाधि हो सकती है जी। सत्संगका वियोग हो तब सत्पुरुषकी यह आधारभूत वाणी पढ़ें। उसीमें काल व्यतीत करें। संभव हो तो सब मिलकर भक्तिभावकर पत्र २२६ आदिका वाचन कर सत्पुरुषके वचन ध्यानमें लेवें। जीवको ढीला नहीं छोड़ना चाहिये, अन्यथा आर्तध्यान आदिसे सत्यानाश कर डालेगा। यथासंभव वृत्तिको वाचन अथवा चिंतनमें रोककर समय व्यतीत करना चाहिये। ___ "उच्च भूमिकाको प्राप्त मुमुक्षुओंको भी सत्पुरुषोंका योग या समागम आधारभूत है, इसमें संशय नहीं है। निवृत्तिवान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका योग होनेसे जीव उत्तरोत्तर उच्च भूमिकाको प्राप्त करता है।" किन्तु अंतरायका उदय होने पर तो यथाशक्य समभाव रखनेसे, काल परिपक्व होनेपर जीव अवश्य समाधिको प्राप्त होगा ऐसा सोचकर, प्रमाद छोड़कर पुरुषार्थ करना चाहिये। ___ कुछ अच्छा नहीं लगता। वैसा स्थान और वैसी योग्यतावाले जीवात्मा कहाँ हैं कि उस स्थान पर शांति प्राप्ति करें? कलिकाल ऐसा आया है कि एक उदासीनताके बिना अन्य कोई उपाय नहीं है। पत्र लिखना अच्छा नहीं लगता, किन्तु तुम्हारी चित्तशांतिके लिये यह लिखना आवश्यक था, अतः विश्राम लेते लेते बलपूर्वक पूरा किया है। शांतिः शांतिः शांतिः।। __ पूर्व संस्कारसे संयोग मिले हैं जी। जीवको प्रमाद कर्तव्य नहीं है जी। सत्संग, सत्समागम सहज ही प्राप्त हो, उसका विचार करें, ध्यानमें रखें, इसीमें विशेष लाभ है जी। हे प्रभु! देवचंद्र-चौबीसीके ग्यारहवें श्री श्रेयांस प्रभुके स्तवनको पढ़कर, विचारकर ध्यानमें लेवें । जीव जानबूझकर उल्टा-सीधा बोले, उसे क्या कहें? जीवने सामान्य कर दिया है। विचार नहीं करता। जो-जो जीवात्मा सन्मार्गके सम्मुख हैं, उनका तो वियोगमें कल्याण है जी। समागमकी अपेक्षा विरहमें विशेष लाभ है, ऐसा भी ज्ञानीपुरुषोंने देखा है और हमने भी सद्गुरुके समीप यही सुना है। वैसे ही मार्ग भी अलौकिक है। उसे लौकिकमें, सामान्यमें नहीं जाने देना चाहिये । घबराना नहीं चाहिये। 'उत्कृष्टे वीर्य निवेशे, योग क्रिया नवि पेसे रे, योगतणी ध्रुवताने लेशे, आतमशक्ति न खेसे रे, वीर० शुरपणे आतम उपयोगी, थाय तेणे अयोगी रे, वीर० धैर्यपूर्वक सर्व जीवात्माको भक्तिमें संलग्न करें। सत्समागम करें। ध्यानमें, चिंतनमें लक्ष्य रखें। “वचनसे उच्चार, मनसे विचार।" थोड़ा थोड़ा लिखते हुए आज पत्र पूर्ण किया है जी। पत्रमें अधिक क्या लिखें? यथावसर समागममें विचार करनेपर समझमें आयेगा जी। + १. जब उत्कृष्ट वीर्य हो तब मन-वचन-कायारूपी योगक्रिया प्रवेश नहीं कर सकती, अर्थात् योगक्रिया नहीं रहती। इस प्रकार योगकी निश्चलतासे आत्मशक्ति जरा भी चलायमान नहीं होती।.....उसी तरह आत्मा जब शूरवीर होता है तब अपने आत्मगुणोंका उपभोग करता है और योगरहित-अयोगी हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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