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________________ २६ उपदेशामृत ४१ सनावद, ता.१-६-२० इस दुषमकालमें जिससे अंतर्वृत्ति सिद्ध हो, भावसे एकांत निवृत्तियोगसे आत्महित हो, वैसा करना चाहिये जी। अनंत कालचक्रसे बाह्य प्रवृत्तिमें परिभ्रमण करते इस जीवको महान पुण्ययोगसे किसी सत्पुरुषके मार्गका आराधन करनेका योग मिलने पर, उसकी भावना कर उसमें रुचि कर जो पुरुष आत्महितकी आराधना करते हैं, उन पुरुषोंको धन्यवाद! पुनः पुनः नमस्कार है जी। सद्गुरुकी यही आज्ञा है जी। वृत्तिको रोकें; संकल्प-विकल्पको मिथ्या जानकर सद्वृत्तिसे 'एगं जाणई से सव्वं जाणई' यही कर्तव्य है। देवचंद्र-चौबीसीका तेरहवाँ स्तवन इन महात्मा पुरुषने गाया है वह विचारणीय है जी। मनकी कल्पनासे संसार खड़ा हुआ है, उस पर विचार करनेसे समझमें आता है कि 'बेर बेर न आवे अवसर, बेर बेर न आवे ।' यही कर्तव्य है जी। जीवने यह विचार ही नहीं किया है कि सत्संग क्या है? इसी विचारसे अंतरंगमें भावकी खुमारी, उल्लास, शांति कुछ और ही अनुभवमें आते हैं जी। * ४२ सनावद,सं. १९७६, ता. २६-७-२० गुरुभक्तिमें गुरुके गुणगानसे ढेरों कर्म क्षय होते हैं जी। यही कर्तव्य है जी। हे प्रभु! आपसे एक अनुरोध है जो पहले भी कर चुके हैं, उसे अब भी ध्यानमें लीजियेगा। हे प्रभु! हम तो इन यथातथ्य सद्गुरुके भक्तके दासानुदास हैं और उन यथातथ्य सद्गुरुकी जो भक्ति करते हैं, उन्हें नमस्कार है जी। हे प्रभु! आप सभी जानते हैं कि श्रीमद् सद्गुरु राजचंद्र प्रभुका यह एक दीन शिष्य है जी। तो अब वह यथातथ्य स्वरूप कहाँ है? इसका विचार कर भक्ति करनी चाहिये जी। “ऐसी कहाँसे मति भई, आप आप है नाहि; आपन] जब भूल गये, अवर कहाँसे लाई ? आप आप ए शोधसें, आप आप मिल जाय." (गुरुगम) दूसरे, महात्मा देवचंद्रजीकी चौबीसीके स्तवन हैं उनमेंसे तीसरा, चौथा, पाँचवाँ, छट्ठा, सातवाँ तथा आठवाँ स्तवन पढ़कर, विचारकर ध्यानमें लेंगेजी। तथा परम प्रकट प्रभु 'श्रीमद् राजचंद्र' ग्रंथमें जो-जो पत्र हैं उन्हें पढ़नेमें 'जितनी शीघ्रता उतना ही धीमा कार्य' 'जितना कच्चापन, उतना खट्टापन' मानकर धैर्य कर्तव्य है जी। समता-समाधिमें रहेंगे जी। समभाव, क्षमा धारण करें। 'जल्दबाजीसे आम नहीं पकते' यह कहावत है। हे प्रभु! आप समझदार हैं। क्या लिखू ? कुछ समझमें नहीं आता। योग्यताकी आवश्यकता है। किसको कहें? सन्मुखदृष्टिवान जीवोंका कल्याण अवश्य होगा जी। जीवनपर्यंत वैसा ही रहना चाहिये। यों आत्माको विशेष चित्र जैसा बनाकर रखनेकी जिस जीवात्माने भावना भायी होगी उसका आत्महित अवश्य होगा जी। यह सबको स्वयं विचारकर देखना है जी। “ज्यां शंका त्यां गण संताप." दूसरे, हे प्रभु! जीवात्माको जो उदयमें आये उसे समभावसे भोगना चाहिये। ऐसे पत्र परम कृपालु देवकी अमृतवाणीसे दैदीप्यमान हैं उन्हें पढ़कर, चिंतनकर ध्यानमें लेंगे जी। आपके वाचन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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