SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पत्रावलि-१ १"जेने सद्गुरु-पदशं राग, तेनां जाणो पूर्विक भाग्य; जेने सद्गुरु-स्वरूपशुं प्यार, तेने जाणो अल्प संसार. ३ प्रभुपद दृढ मन राखीने, करवो सौ वे'वार; विरति, विवेक वधारीने, तरवो आ संसार. ४ प्रभु सर्व व्यापी रह्या, छे तुम हृदय मोझार; ते प्रत्यक्ष अनुभवी, पामे भवनो पार. ५ "साचे मन सेवा करे, याचे नहीं लगार; राचे नहि संसारमां, माचे निज पद सार. ६ 'सेवाबुद्धिथी सेवना, करो सदा शुद्ध भाव; सत्सेवा संसारथी - छे, तरवाने नाव. ७ सद्गुरु चरण धरे जहां, जंगम तीरथ तेह; ते रज मम मस्तक चडो, बालक मागे एह.८ लेणा-देणा जगतमें, प्रारब्धके अनुसार; सोहि पतावा कारणे, रत्नत्रय अवतार. ९ 'चिंतवियो धरियो रहे, ओर अचिंतित हेयः । प्रबल जोर भावी तणुं, जाणी शके न कोय. १० 'बंदाके मन ओर है, कर्ताके मन ओर; । ओधवसें माधव कहे, जूठी मनकी दोड." ११ "शुद्ध, बुद्ध, चैतन्यघन, स्वयंज्योति सुखधाम; बीजं कहीए केटलुं ? कर विचार तो पाम.' १२ संसारमें धन आदि स्वार्थके लिये लंबी यात्रा अथवा लौकिकभावसे तीर्थयात्रा अनेक जीवात्मा करते हैं, किन्तु अलौकिक भावसे करनेमें जीव प्रमाद करता है यह वृत्तिकी ठगाई है जी। जाग्रत होनेमें, सत्संगमें अनेक विघ्न आड़े आते हैं, उन्हें धकेलकर इस मनुष्यभवमें आत्माके लिये सत्संग करे, ऐसे जीवात्मा विरले ही होते हैं। १. जिसे सद्गुरुके चरणकमलसे प्रेम है उसे भाग्यशाली (पूर्वक पुण्यके उदयवाला) मानें। जिसे सद्गुरुके स्वरूपसे प्यार है, वह अल्पसंसारी है। २. प्रभुके शरणमें दृढ़ मन रखकर संसारका सर्व व्यवहार करे और विरति-विवेक बढ़ाकर इस संसारको तिर जाये। ३. प्रभु सर्वव्यापी है, वे तुम्हारे हृदयमें भी है, उसका प्रत्यक्ष अनुभवकर भवपार हो जाये। ४. जो सच्चे मनसे सेवा करते हैं, किंचित् भी याचना नहीं करते, संसारमें आसक्त नहीं होते, वे साररूप अपने आत्मस्वरूपका वेदन करते हैं। ५. सेवाबुद्धिसे शुद्ध भावसहित सद्गुरुकी सेवा करो, क्योंकि सत्सेवा संसारसे तिरनेके लिये नौका समान है। ६. जहाँ सद्गुरु विचरते हैं वही जंगम तीर्थ है। वो चरणरज मुझ मस्तकपर रहो यही मेरी इच्छा है। ७. संसारमें सब लेन-देन प्रारब्धानुसार होती है, उसको (पूर्वकर्मको) भोगनेके लिये रत्नत्रयरूप सद्गुरुका संसारमें जन्म होता है। ८. मनचिंतित एक ओर पड़ा रह जाता है और अचिंतित होता है, क्योंकि भावि (प्रारब्ध) प्रबल है उसे कोई जान नहीं सकता। ९. बंदा (इस जीव) के मनमें और है और कर्ता (ईश्वर) के मनमें कुछ और है। माधव (कृष्ण) उद्धवजीसे कहते है कि यह जीव फोगट ही कल्पनाके घोड़े दौड़ाया करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy