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________________ २४ उपदेशामृत जीवात्माकी जागृति होती है जी। संसारमें सब अपना मानकर व्यवहार-व्यवसायमें जीव समय गँवाता है। उसकी अपेक्षा यदि थोड़ा समय भी परमार्थ-आत्मार्थके लिये सत्संगमें व्यतीत किया जाय तो उसका अनंत भवभ्रमण मिट जाय । आप तो समझदार हैं। इस मनुष्यभवमें एक आत्माके लिये व्यवसाय हुआ हो तो जीवका कल्याण हो जाय । इसमें जीव प्रमाद करता है वहाँ वृत्ति ठग रही है, अतः समझमें नहीं आता। बाटीके लिये खेत खोया' और कौड़ीके लिये रत्न खोया, उसी तरह इस स्वप्नवत् संसारमें लुब्ध होकर तन्मयतासे जीव प्रवृत्ति करता है, किन्तु यह नहीं जानता कि देहसे लेकर सर्व संयोगोंसे मैं भिन्न हूँ। मेरी वस्तु शुद्ध ज्ञान-दर्शन-चारित्र है। अंतमें सर्व संयोग छोड़छोड़कर अनेक भवोंमें परिभ्रमण करते हुए घांचीके बैलकी भाँति भटकता फिरा है। इस भवमें एक यथातथ्य जो जानने जैसा है, उसके लिये जीवने कुछ भी ध्यान नहीं रखा-यह कितनी भूलभरी बात है जी! इस जीवका आत्महित होता हो और अनंत भूलोंमेंसे एक भूल निकालनेसे सभी भूलें निकलती हो- ऐसा योग आत्मार्थीको बनाना उचित है जी! अरेरे! स्वार्थके सगे-संबंधीकी अथवा इस देहकी तो चिंता करता है, परंतु प्रारब्धके अनुसार ही मिलता है वह सुख भी मिथ्या है, खोटा है, आत्मिक सुख नहीं है। जिसके लिये चिंता रखनी चाहिये, उसके लिये यदि इस भवमें सावचेत हो जाय तो बहुत अच्छा है जी। आप तो समझदार हैं, पूर्वसंस्कारवश सन्मुखदृष्टि हुई है, अतः उसका विचार करना चाहिये जी। 'श्रीमद् राजचंद्र' वचनामृतमें पत्र ३७ में लिखा है कि “जगतके सभी दर्शनों-मतोंकी श्रद्धाको भूल जाइये; जैन संबंधी सब विचार भूल जाइये।" "आत्माको इतना ही पूछनेकी जरूरत है कि यदि तू मुक्तिको चाहता है तो संकल्प-विकल्प, रागद्वेषको छोड़ दे और उसे छोड़नेमें तुझे कुछ बाधा हो तो उसे कह । वह अपने-आप मान जायेगा और वह अपने-आप छोड़ देगा। जहाँ-तहाँसे रागद्वेषरहित होना यही मेरा धर्म है; और वह अभी आपको बताये देता हूँ...मैं किसी गच्छमें नहीं हूँ, परंतु आत्मामें हूँ, इसे न भूलियेगा।" यह पत्र पूरा पढ़कर उस पर विचार करेंगे जी। "गच्छमतनी जे कल्पना, ते नहि सद्व्यवहार; भान नहीं निज रूपर्नु, ते निश्चय नहि सार. १ जाति वेषनो भेद नहि, कह्यो मार्ग जो होय; साधे ते मुक्ति लहे, एमां भेद न कोय." २ १. एक किसान अपने खेतमें हल जोत रहा था। वहाँ कोई एक परदेशी ब्राह्मण आया। भीख माँगकर आटा आदि लाया था उसकी कुएके पास बैठकर रसोई बनाई। बाटी और दाल बनाई। दालके बघारकी सुगंधसे किसानको दालबाटी खानेकी लालसा जागृत हुई। अतः उसने ब्राह्मणके पास जाकर याचना की। ब्राह्मणने मौका देखकर कहा कि हजारकी उपजवाला खेत मेरे नाम लिख दो तो बदलेमें दालबाटी खिलाऊँ। किसानने यह स्वीकार कर लिया और बाटीके लिये खेत खोया। २. किसी एक मनुष्यने बहुत परिश्रमसे परदेशमें पैसा कमाकर उसका एक रत्न खरीदा। साथमें मार्गव्ययके लिये थोड़ी कौड़ियाँ भी रखीं और अपने देशकी ओर लौटने लगा। रास्तेमें किसी स्थान पर पानी पीने बैठा, वहाँ एक कौड़ी गिर गई। एक-दो कोस आगे जाकर उसने कौड़ियोंको गिना तो देखा कि एक कौड़ी कम है। पानी पीते गिर गई होगी, यह सोचकर अपने पासका अमूल्य रत्न वहीं कहीं छिपा दिया और कौड़ी लेने वापस गया। रत्न छिपाते हुए उसे किसीने दूरसे देख लिया था, अतः उसके जानेके बाद वह रत्न लेकर 'चंपत हो गया। यों कौड़ीके लिये उसने रत्न खोया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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