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पत्रावलि-१ १“पंडित सरखी गोठडी, मुज मन खरी सोहाय;
आवे जे बोलावतां, माणेक आपी जाय. बलिहारी पंडित तणी, जस मुख अमीय झरंत; तास वचन श्रवणे सुणी, मन रति अति करत. मन-मंजूसमें गुण-रत्न, चूप करी दीनो ताल; घराक विण नहि खोलिये, कुंची बचन रसाल. सज्जन सज्जन सौ कहे, सज्जन कैसा होयजो तनमनसे मिल रह्या, अंतर लखे न कोय."
३९ सनावद, वैशाख वदी १४, सोम, १९७६ ज्ञानी पूर्वकर्मके संबंधमें समभावसे ऋण चुकानेके कार्यमें रुके हैं जी, यह सत्य है।
"जा विध राखे राम, ता विध रहिये ।" "सनो भरत. भावि प्रबल. विलखत कहे रघनाथ:
हानि-वृद्धि, जन्म-मृत्यु, जश-अपजश विधिहाथ." हे प्रभु! सोचा हुआ कुछ होता नहीं। क्षेत्र स्पर्शनानुसार जो-जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव पूर्वसर्जित होते हैं, उन्हें समाधिभावसे, समतासे, गुरुकृपासे भोगना पड़ता है जी । यहाँ शरीर प्रकृति बहुत क्षीण हो गई है जी।।
हे प्रभु! कालका भरोसा नहीं है। क्षण-क्षण, समय-समय आयुष्य व्यय हो रही है जी। हे प्रभु! सद्गुरुचरणके प्रसादके एक सद्विचारसे अंतरंगमें भेदज्ञान स्फुरित होकर परम आनंद रहता है जी। सबका भला हो, सबके साथ मित्रभाव हो! यही हृदयमें है। पर किसीके साथ टकरानेका विचार नहीं है। जिसके साथ संस्कार होगा उस जीवात्माके साथ मिलजुलकर चलेंगे। अन्य कुछ जरूरत नहीं है। हरीच्छासे जैसा होगा, देखते रहेंगे। हमें अब कुछ विघ्र, बाधा नहीं है।
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सनावद, ई.स. १९२०, सं. १९७६ इस जीवात्माको सत्संग-सत्समागमका योग बनाना चाहिये। उसके अंतरायमें जीवको प्रमादसे बहुत हानि होती है। कारणके योगसे कार्य सम्पन्न होता है, ऐसा जानकर, उस सत्संगके कारणसे
१. पंडितों जैसी गोष्ठी (चर्चा-विचारणा) वास्तवमें मेरे मनको सुहाती है। यहाँ जो भी समागममें आता है वही माणिक दे जाता है (उत्तम बात कह जाता है।) ___उन पंडितोंकी (विद्वानोंकी) बलिहारी है कि जिनके मुखसे अमृतकी वर्षा होती है। उनके वचन कानमें पड़नेसे मन अत्यंत आनंदित हो उठता है।
__ (ज्ञानीने) मनरूपी मंजूषा (पेटी) में गुणरूपी रत्नोंको छुपाकर ताला लगा दिया है। अमृतरसका पान करनेवाले ग्राहक आयेंगे तभी रसाल वचनोंरूपी कूँचीसे ज्ञानी ताला खोलेंगे।
सभी 'सज्जन, सज्जन' कहते हैं परन्तु सज्जनका रूप वे नहीं जानते । जो तनसे और मनसे एक हैं अर्थात् बहुत ही सरल हैं वे सज्जन हैं, उनके अंतरको कौन पहचान सकता है!
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