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पत्रावलि-१
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३२ जूनागढ़, कार्तिक सुदी ७, शुक्र, १९७३ "श्री भरतेश्वरजीकी भावना हो! श्री गौतमस्वामीजीकी विनय हो! श्री धन्ना-शालिभद्रका वैराग्य हो! श्री स्थूलिभद्रजीका शील हो! श्री भरत-चक्रवर्तीकी पदवी हो! श्री गौतमस्वामीजीकी लब्धि हो!
श्री धन्ना-शालिभद्रजीकी ऋद्धि हो! श्री कयवन्नाजीका सुख-सौभाग्य हो!" जो असाता वेदनी उदयमें आई थी, अब उससे आराम होगा, अच्छा होगा जी। शांतिसमभावसे सहजात्मस्वरूपका स्मरण-इस विशिष्ट औषधिसे अच्छा हो जायेगा जी, वैसा ही करेंगे जी। ___ तथा, आपने आत्मभावसे उद्गार प्रदर्शित किये कि सदैव उत्पाद-व्यय-ध्रुवत्व त्रिकालमें प्रवर्तित हैं, वे आदि वस्तुस्वरूपसे यथातथ्य वैसे ही हैं, ऐसा ही समझकर सदैव समभावसे स्वभावआनंदमें रहना चाहिये जी।
अनादिकालसे सद्गुरुकी यथातथ्य पहचान नहीं हुई है। वह होनेसे, श्रद्धा करनेसे, प्रतीति आनेसे, पहचान होनेसे कल्याण है जी।
बगसरा, फाल्गुन सुदी८,सं.१९७३ हमने कभी भी किसी भी प्रकारसे आपके चित्तको दुःखाया हो तो उसकी क्षमायाचना करते हैं जी, आपश्रीको क्षमाते हैं जी। यद्यपि जीव अनादिकालसे स्वच्छंदसे प्रवृत्ति कर रहा है। सत्पुरुषकी आज्ञा भली प्रकार यथातथ्य नहीं आराधी, उसका हमें अंतरंगसे खेद है जी। वह हरि-गुरुकृपासे अब पूर्ण होगा जी। फिर दोष तो इस जीवमें अनंत हैं जी। यद्यपि देह भी अनंत दोषका पात्र है जी। अतः जिन सत्पुरुषको पहचाना, उनकी वाणी हृदयमें उतरी, अंतर परिणाममें परिणत हुई, जो भाव त्रिकाल उपयोगरूप हुआ वह मिटनेवाला नहीं । अब क्षण-क्षण वृत्ति उदयाधीन प्रवर्तित हो रही है, उसमें उदासीनभावसे द्रष्टाके रूपमें प्रवृत्ति करना यही वारंवार विचारते हैं। प्रकृतिके अधीन नहीं होना, यही पुरुषार्थ कर्तव्य है। चाहे जैसे निमित्तोंमें भी प्रारब्ध, साता-असाता भोगते हुए समतासे सहन करनेका पुरुषार्थ करते रहना, ऐसा विचारमें है जी। दूसरे, विभाव-परिणमनरूप आत्माका नाश होता हो वहाँ मृत्यु हो तो भले ही हो, परंतु मन-वचन-कायासे आत्माका नाश होने देनेका संकल्प या इच्छा नहीं होती। अन्य इच्छा नहीं है। त्रिकालमें यही है। अंतरवृत्ति अन्य कुछ मान्य नहीं करती, वहाँ क्या करें? अतः खेदका शमन कर समभावसे रहनेका विचार है जी।
__ लौकिक दृष्टि पर ध्यान नहीं देना है। एक सत्पुरुषके वचनामृत प्रत्यक्ष श्रवण हुए हैं, उनके बोधके पत्रोंकी 'पुस्तकमें सभी शास्त्र समा गये हैं। अब जो-जो अन्य ग्रंथ पढ़ने या चिंतनमें आते हैं उन सबमें वही बात आती है। अतः मुख्यरूपसे एक इसी पुस्तकका पढ़ना विचारना होता है जी।
_ "प्रारब्ध पहले बना, पीछे बना शरीर" फिर "तारुं तारी पास छे, त्यां बीजानुं शुं काम?" इस प्रकार आपको गुरुप्रतापसे कोई अड़चन आनेवाली नहीं है। अतः अब अपना-अपना विचार करना है। “नहि दे तुं उपदेशकुं" "जब जागेंगे आतमा, तब लागेंगे रंग।" फिर परमार्थ सर्व कर्तव्य है जी। स्व-परहित करना चाहिये, पर जहाँ योग्यताकी कमी हो वहाँ क्या किया जाय?
१. 'श्रीमद् राजचंद्र' ग्रंथ।
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