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________________ १८ उपदेशामृत उपादान-आत्मा-निश्चय-परमार्थ-शुद्धचेतना। निमित्त-आत्मा-व्यवहार-अशुद्ध चेतना। अविद्या-वासना-मिथ्यात्व-मोहादि अज्ञान है। व्यवहारकाल-निश्चयकाल। "व्यवहारकाल सबसे सूक्ष्म 'समय' नामवाला है, सो उपजे भी है, विनसे भी है, और निश्चयकालका पर्याय उत्पाद-व्ययरूप सिद्धांतमें कहा गया है। उसमें अतीत, अनागत, वर्तमानरूप अनेक भाव हैं। ___ निश्चयकाल अविनाशी है।" "काळलब्धि लही पंथ निहाळशं ।" पुरुषार्थ, वह स्वसमय उपयोग, वह कर्तव्य है; परसमय उपयोग कर्तव्य नहीं-रागद्वेष जैसे भी हो कर्तव्य नहीं। ___उदयको देखकर उदासीन (खिन्न) होना भूल है। उदासीनता अर्थात् समभाव, वही वीतरागता, वही चारित्र है। यही कर्तव्य है। अमृतका समूल नारियल वृक्ष-द्रष्टाभाव, भेदज्ञान अंतरवृत्तिसे कर्तव्य है; मूल आत्मा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव; उपयोग ही आत्मा है; उस भावपरिणाममें आना ही कर्तव्य है। शेष सब भूल जाना है। "आतमभावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे।" जीव केवलज्ञान प्राप्त करता है। अंतरवृत्ति पर उपयोग रखकर बाह्य व्यवहारमें प्रवृत्ति करनेपर आत्मा सम्मुख है। 'जगत आत्मवत् देखें ।' अधिक क्या लिखें? कुछ नहीं आता। वृत्ति संकुचित होनेसे लिखनेकी वृत्ति नहीं होती। पत्र २१२ विचारियेगा। "सद्गुरुना उपदेशथी, समजे जिन- रूप; तो ते पामे निजदशा, जिन छे आत्मस्वरूप." +"कम्मदव्वेहिं सम्मं संजोगो होइ जो उ जीवस्स । सो बंधो नायव्वो, तस्स वियोगो भवे मुक्खो ॥" * * ३१ जूनागढ़, आश्विन वदी ११, शनि, १९७२ धैर्य रखें। समभावसे वेदन करें। अविषम होना तथा रहना योग्य है। विषम भाव होगा तो आर्तध्यान, रौद्रध्यान होगा जिससे कर्म बंधेगे। अतः समभाव रखें। समता, क्षमा, दया भावसे सद्गुरु स्मरण 'सहजात्मस्वरूप' कर्तव्य है जी। हे प्रभु! उस स्वरूपकी पहचान सत्संगसे होती है जी। सद्गुरुकी पहचान नहीं होनेसे ही जीव भटकता है जी। यह जीव तो किसीके बदले किसीको चिपट जाता है। अतः सत्शास्त्र, वचनामृत तथा सत्समागमसे समझमें आयेगा। भावना रखनेसे हरिगुरु ऐसा अवसर प्राप्त करायेंगे जी । धैर्य कर्तव्य है। क्षण-क्षण सहजात्मस्वरूपका स्मरण करियेगा। भूलने योग्य नहीं है। काललब्धि आ मिलेगी जी। समय समय उपयोग कर्तव्य है जी। + जीवका कर्मद्रव्यके साथ जो संयोग है उसे बंध जानना, और उसका वियोग ही मोक्ष है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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