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________________ पत्रावलि-१ १७ आत्मिक सुख अनुभवमें आ रहे हैं, जिनका वर्णन किया नहीं जा सकता। अनंत शक्ति है, सिद्धियाँ हैं, पूर्व भव भी ज्ञात होते हैं, आनंद आनंद आ रहा है, एकमात्र श्रद्धासे! कहा या लिखा नहीं जाता। आपके चित्तको शांतिका हेतु जानकर बता रहा हूँ। किसीको बतानेकी जरूरत नहीं है। शांतिः शांतिः शांतिः + * जूनागढ़, आश्विन वदी ८, रवि, १९७२ आप तो भक्तिभावसे आनंदमें रहें। जो आपके लिये सर्जित है, उदयकालमें है उसमें अविषमभावसे अर्थात् समभावसे प्रवृत्ति करेंगेजी। 'पूर्ण आनंद है, पूर्ण है', ऐसा ही समझकर, आत्मा है, पुराणपुरुषकी शरण है, अतः फिकरका फाँका मारकर, सब कुछ भूलकर, सदा स्वस्वभावमें मग्न रहकर “आतमभावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे!" यहीं चिंतन कर्तव्य हैजी। दूसरे, प्रभु! लक्ष्मीचंदजी मुनि द्वारा लिखाया गया पत्र यहाँ आया है जी। उसमें वे लिखते हैं कि 'मुझे दर्शन करनेकी इच्छा है।' आप उनको पत्रसे या किसी कार्यवश वहाँ जाना हो तो बतायें कि दर्शन तो सदा हृदयमें लाते रहियेगा, और वह दूर नहीं है, पास ही है ऐसा समझे बिना छुटकारा नहीं है। क्षेत्र तो जहाँ जाओ वहाँ पानी, मिट्टी और पत्थर हैं । 'पहाड़ दूरसे सुन्दर लगते हैं।' यह दुःषमकाल, हलाहल वर्तमान संयोग देखकर ज्ञानीपुरुष उदासीन हुए हैं जी। अतः यथाशक्य साता-असाता जो उदयमें आवे उसे समभावसे, समपरिणामपूर्वक सहनकर शांतिसे रहना योग्य है जी। सर्व देशकाल देखकर, जैसा संयोग हो वैसा वेदन कर सदा आनंदमें रहें। हृदयमें भक्तिभाव लाकर स्मरणमें काल व्यतीत करेंगेजी। जैसे भी हो सके आत्मभावमें, प्रभु पास ही है ऐसा मानकर भावदर्शन कर्तव्य है जी; दूर है ही नहीं, ऐसा समझना उचित है। ३० जूनागढ़, आश्विन वदी ११, शनि, १९७२ शुद्ध चैतन्यभाव-स्वउपयोग-विचारमें परिणमन, वहाँ सम्यक्त्व, वहाँ मोक्ष। अशुद्ध चैतन्यभाव-उपयोग-विचारमें परिणमन, वहाँ बंध, वहाँ मिथ्यात्व, वहाँ मोह, वहाँ रागद्वेष, वहाँ विष; यही अज्ञान है। “मनोज्ञता भावसे विचार, भावध्यानतें आत्मिक भावोंमें शुद्ध उपयोगकी प्रवृत्ति होना सो स्वसमय है।" "परद्रव्यमें अशुद्ध उपयोगकी प्रवृत्ति होना सो परसमय है।" साध्य-साधन (स्वरूप) सो स्वसमय सो परसमय सो उपयोग विचार शुद्ध चेतना अशुद्ध चेतना Jain Education N ational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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