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________________ २० उपदेशामृत अनंतकालसे जीव स्वच्छंदके उदयसे भ्रमण कर रहा है, वहाँ दयाके सिवाय अन्य क्या किया जा सकता है ? सत्पुरुषने तो बहुत कहा है, पर सर्व जीव कर्माधीन हैं जी। __ जो समय बीत रहा है वह फिर आनेवाला नहीं है। यथाशक्य उपाधि कम हो, आरंभ परिग्रह संकुचित हो, अल्पारंभ हो वैसा कर्तव्य हैजी। “प्रत्येक प्रत्येक पदार्थका अत्यंत विवेक करके इस जीवको उससे भिन्न-व्यावृत्त करें-ऐसा निग्रंथ कहते हैं।" जिसकी आजीविका सुखपूर्वक चलती हो, उसे उपाधि कर कमानेकी जरूरत नहीं है। इस मनुष्यभवमें किसी पूर्वपुण्यके योगसे सत्मार्गआराधनका संयोग मिला है। सावधान होने जैसा है जी। सर्व मुमुक्षुभाइयोंको भी ऐसा ही विचार करना उचित है जी। सत्पुरुषका यही अनुरोध है जी। "लक्ष्मी अने अधिकार वधतां, शुं वध्यु? ते तो कहो।" ३४ बगसरा, फाल्गुन सुदी १३, मंगल, १९७३ परम इष्ट, सत्संग, गुरु, उपकारी गुरुदेव; त्रिविध एकरूपे सदा, प्रणमुं पद नित्यमेव. १ जेती मनमें ऊपजे, तेती लखी न जाय; तातें वृत्ति लखनकी, सहज रही संकुचाय. २ कागजकुं काला किया, काला मनके काज; जिसका मन है उजला, उसको क्या कागजका साज? ३ क्या कहें? “कह्या बिना बने न कछु, कहीए तो लज्जइये।" । आप इस समय सत्संगमें 'श्रीमद् राजचंद्र' पुस्तककी द्वितीय आवृत्तिका वाचन-चिंतन करेंगेजी। हे प्रभु! लिखना अच्छा नहीं लगता। यहाँ दशा और ही बरत रही है जी। आपके चित्तको शांति हो इसलिये आज यह पत्र लिखा है जी। किसीको कहनेकी आवश्यकता नहीं है यह ध्यानमें रखें। सर्व सत्पुरुषोंका मार्ग एक ही है जी। समझकर समाना है जी, अन्य कुछ नहीं। यहाँ सद्गुरुकृपासे शरीरप्रकृति सुखशांतिमें है। पूज्य प्रेमी भक्त कल्याणजीभाई महा पूर्ण पुण्यभाग्यशाली हैं जी। ३५ बगसरा, फाल्गुन सुदी १३, मंगल, १९७३ हे प्रभु! यहाँसे पत्र लिखनेकी चित्तवृत्ति संकुचित हो जानेसे आपके चित्तको खेद न हो इसलिये इस पत्रसे आपको सूचित किया है जी : आपश्री सद्गुरुके चरण-उपासक हैं। 'सहजात्मस्वरूप' स्मरणको हर घड़ी क्षण-क्षण ध्यानमें रखेंगे जी। विशेष कुछ लिखनेकी वृत्ति बंद होती है जी। अंतरंगमें सदैव आनंद रहता है जी। सद्गुरु चरणसे सदा सुखसाता है जी। उदयाधीन साता असाताको समभावसे शांतिसे देखकर, परिणाम समाधिमें लय होते हैं जी। उसमें किसी प्रकारका खेद नहीं होता है जी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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