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________________ १० उपदेशामृत करते। अतः इसे ध्यानमें-लक्ष्यमें रखकर सुख-समाधिमें आत्मभावसे-भावनासे रहियेगा। कोई चिंता न कीजियेगा। 'फिकरका फाँका भरा ताका नाम फकीर।। *डगमग ठाली शाने करे, तारुं धायुं न थाय; गमतुं थाशे गोविंदमुं, कोनुं जाण्युं न जाय. १ ऋण संबंधे आवी मळ्यां, सुत, वित, दारा, देह; लेवा-देवा ज्यारे मिटे, मार्ग लागशे तेह. २ निश्चे जाणो रे'वू नथी, जूठो जग-विश्वास; ओहथी रहेजे तुं अलगो, आठे पहोर उदास. ३ फोगट फंद संसारनो, स्वारथनो छे स्नेह; अंते कोई कोईनुं नथी, तुं तो तेहनो तेह. ४ खोळये खोटुं सर्वे पडे, न जडे नाम ने रूप; बांधी रूंधी ऊभुं कर्यु, जेवू काष्ठस्वरूप. ५ संशय तेने शानो रह्यो, जेने ब्रह्मविचार; । अग्नि उधेई अडे नहीं, रवि नहि अंधकार. ६ . ___ नार, ता.७-५-१६, रवि,सं.१९७२ आप हमारे संबंधमें चिंता न करें। जिसे सद्गुरु परमकृपालु योगीन्द्र प्रभुकी शरण है उसे किसी बातकी कमी नहीं है। उसे सर्व वस्तु मिल गई है। सद्गुरुकी कृपादृष्टि ही कल्याण है, सत्पुरुषकी सर्व इच्छाकी प्रशंसामें ही कल्याण है, यही हमें आनन्द है! अत्यानन्द है! पुनश्च-नीचेके दोहे अपनी किसी व्यक्तिगत पोथीमें उतारकर विचारियेगा। "आतम ओर परमातमा, अलग रहे बहु काल; सुंदर मेला कर दिया, सद्गुरु मिला दलाल. १ भेदी लीया साथमें, वस्तु दिया बताय; कोटि जनमका पंथ था, पलमां दिया छुडाय. २ चार खाणमें भटकतां, कबहु न लागत पार; सो तो फेरा मिट गया, सद्गुरुका उपकार. ३ ___ * अर्थ- तु व्यर्थमें संकल्प-विकल्प क्यों करता है? तेरी धारणाके अनुसार कुछ होनेवाला नहीं है। गोविन्दकी इच्छानुसार (आत्मा द्वारा निबद्ध कर्मोंके उदय अनुसार) सब होता है इसे कोई नहीं जान सकता॥१॥ ऋणानुबंधसे पुत्र, धन, नारी, देह आदि सब संबंध आ मिले हैं। तत्संबंधी सारा लेन-देनका व्यवहार जब मिटेगा तब सब अपने अपने कर्मानुसार चले जायेंगे ॥२॥ निश्चयसे जानो कि यहाँ रहना नहीं है, जगतका विश्वास झूठा है, तु इन सबसे आठों प्रहर विरक्त होकर अलग रहना ॥३।। यह संसारका फंदा व्यर्थ है, यहाँ सब स्वार्थकी प्रीति है, अन्तिम समयमें कोई किसीका नहीं। परंतु तू स्वयं तो अविनाशी पदार्थ, जो है सो है ॥४॥ खोज करने पर सब खोटा साबित होता है जिसका न कोई नाम है और न रूप है। सब कुछ काष्ठके समान भ्रान्तिसे जबरदस्ती खड़ा किया है ॥५॥ (इस बातमें) उसे संशय कैसे रह सकता है कि जिसे ब्रह्म(आत्मा)का विचार है? जैसे अग्निको दीमक नहीं छूती और सूर्यको अन्धकार नहीं छू पाता ॥६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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